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Consultationपरिवार के वरिष्ठ स्त्री-पुरुषों का कर्तव्य है कि मृत्यु समय पर उपयोगी वस्तुओं की व्यवस्था, प्रबुद्ध सदस्यों की राय से अन्य सदस्यों को जानकारी न देते हुए पूर्व में ही कर लें।
परिवार में किसी की मृत्यु सान्निकट होने की डॉक्टरी अथवा परिवार व हितैषियों की सलाह हो तो स्थानीय व अन्य स्थानों में रहनेवाले परिवार सदस्यों को सूचना शीघ्र देनी चाहिए। यह निहित है कि बिमारी गंभीर है एवं Hospital में भर्ती की सूचना परिवार सदस्यों को पूर्व में दे दी गई है।
मृत्यु सम्भावित लगे तो मृत्यु उपरान्त क्या करना आवश्यक है इस हेतु भी वरिष्ठ व प्रबुद्ध सदस्यों की राय से मानसिक व्यवस्था कर लेनी चाहिए।
मृत्यु हो जाने पर स्थानीय व अन्यत्र रहनेवाले परिवार व निकट मित्रों को सूचना शीघ्र देनी चाहिए।
वरिष्ठ व प्रबुद्ध सदस्यों से सलाह कर निश्चित करना चाहिए कि दाह-संस्कार कब व कहां करना है। बाहरगांव व विदेशों में रहनेवाले परिवार सदस्यों के आने तक रुकना है अथवा नहीं, निश्चित करना चाहिए। विदेश में रहनेवाले सदस्यों की आने की तारीख व समय भी निश्चित कर लेने चाहिए।
तदनुसार दाह-संस्कार का दिन व समय निश्चित करना चाहिए। बाहर से आनेवाले सदस्यों के पहुंचने के समय की अनिश्चितता का विचार कर लेना चाहिए। दाह-संस्कार का समय स्थानीय बन्धुओं की सुविधा का विचार करते हुए करना चाहिए। दाह-संस्कार सामान्य श्मशान में करना है अथवा विद्युत/गैस गृह में ठीक होगा इसका निश्चय भी परिवार सदस्यों में करना चाहिए।
दाह-संस्कार हेतु समय निर्धारण के पहले स्थानीय टेलीफोन सूची तैयार कर लेनी चाहिए। समय निर्धारण में लोगों के आगमन में लगनेवाले समय का विचार कर लेना चाहिए। उचित होगा कि शव यात्रा में सहभागी होनेवाली सूची को परिवार, सम्बन्धी व निकट मित्रों तक ही सीमित रखी जाय।
दाह क्रिया में निपुण सहयोगियों को बुलाकर दाह-क्रिया सामग्री मंगाने की व्यवस्था करनी चाहिए। सामग्री एकत्र करने में समयावधि का विचार शव यात्रा समय निर्धारण में कर लेना चाहिए। दाह-संस्कार क्रियाओं में निपुण समाज बन्धुओं का मानवीय कर्तव्य है कि ऐसे प्रसंगों पर बुलावे अथवा न बुलावे पहुंच ही जाना चाहिए एवं व्यवस्था हेतु मार्गदर्शन तथा सहायता करनी चाहिए। ऐसे प्रसंगों पर क्या एवं कैसे करना आवश्यक व उचित है इसकी जानकारी सामान्य लोगों में पर्याप्त नहीं होती। प्रबुद्ध जानकारों की सेवा को महत्वपूर्ण समाज सेवा समझनी चाहिए।
पण्डित व नाई की व्यवस्था भी शव यात्रा समय निर्धारण में कर लेनी चाहिए। बाल देने/मुण्डन की प्रथा समय-वाह्य है, इसका भी विचार करना चाहिए।
शव-यात्रा हेतु मंगाई सामग्री से अर्थी जानकार लोगों से बनवाली जाय तो ठीक होती है। अर्थी पर शव को बांधने का कार्य भी जानकार लोगों से करवा लेना ठीक होता है।
Death Certificate की कोपी एवं दाह-क्रिया हेतु श्मशान संचालक को अग्रिम सूचना/आरक्षण की आवश्यकता को ध्यान में रखना चाहिए।
मृत्यु होने पर जंवाई को शव यात्रा में जाना कुछ परिवारों में निषिद्ध माना जाता है। बदले हुए परिवेश में बेटे एवं जंवाई को समान समझा जाता है। कुछ परिस्थिति में जंवाई ही परिवार की सेवा और संरक्षण का भार निभाता है। उचित होगा कि जंवाई को सम्मिलित होने के निषेध पर पुनर्विचार हो।
श्मशान में पिण्डदान की शेष विधि के पश्चात् अग्नि संस्कार पर आए बन्धु बान्धुवों को चन्दन तूलिका द्वारा श्रद्धा सम्पन्न करानी चाहिए। पश्चात् उन्हें नमस्कार करते हुए विदा - मुद्रा प्रकट करनी चाहिए।
तिये की बैठक अथवा प्रार्थना सभा का स्थान व समय निश्चित कर लेना चाहिये। तदनुसार समाचार पत्र में सूचना प्रसारित करनी चाहिये। समाचार-पत्रवालों को Death Certificate की कोपी की आवश्यकता होती है।
बाहर गांव से सगा सम्बन्धी/मित्रों का शोक-मिलन फोन व पत्र द्वारा संवेदना प्रकट करना पर्याप्त है ऐसा आग्रह सम्बन्धी/मित्रों से परिवार सदस्यों को करना उचित होगा।
देहावसान पश्चात् घर में शोक का वातावरण सहनीय हो इस हेतु भजनों की टेप चलती रहे तो उचित होगा। परिवार सदस्यों द्वारा भजन-कीर्तन भी रखा जा सकता है।
मरणोपरान्त चिता में शरीर के सभी अंग भस्म हो जाते हैं। शरीर के अनेक अंग बहुमूल्य एवं जीवनोपयोगी हैं जिन्हें समय रहते प्रत्यारोपण किया जाये तो किसी भाई/बहिन को जीवनदान मिल सकता है। जरजर शरीर भी Medical Research हेतु उपयोग में आ सकता है। अतः हमारा मानवीय कर्तव्य है कि मृत्यु उपरान्त चक्षुदान, अंगदान अथवा देहदान के बारे में विचार कर अपनी इच्छा का निर्देश लिखित रूप में व्यक्त करें एवं उसकी जानकारी परिवार के सदस्यों को यथेष्ठ पूर्व में ही देवें। परिवारजनों को भी दिवंगत व्यक्ति की इच्छा व निर्देश का सम्मान करना चाहिए।
गंगाजल, दही, मिश्री, गोबर, तुलसीजी की माटी, पंचरत्न (हीरा, पन्ना, भाणक, मोती, मूंगा) की पुड़िया, दो छोटे मोती, कुशा, रेणुका, गंगाजल से धोये हुये अढ़ाई मीटर के दो कपड़े (या 2 नयी चद्दर) ।
व्यक्ति जब मरणासन्न हो तो उसे गंगाजल में तुलसी घिसकर पिलावें, दही मिश्री देवें, पंचरत्न देवें, दोनों आंखों में मोती रखें। गोबर हो तो उससे, नहीं तो तुलसीजी के गमले से थोड़ी । मिट्टी लेकर गंगाजल से चौका लगावें । शरीर को नहलाकर उस पर तीर्थों की रेणुका छिड़कें, उसपर कुशा व काले तिल डालें। कुशा की चटाई अथवा चद्दर बिछाकर दक्षिण दिशा में सिर रखकर सुला देवें। सिरहाने तुलसीजी का गमला, हो तो आंवले का गमला, बिल्वपत्र का गमला भी रखें। मान्यता है कि यह तीनों पेड़ों के सानिध्य से काशी (मुक्तिधाम) का वास होता है। श्रद्धानुसार धर्म-पुण्य बोल देवें। घर के सभी जन मिलकर कीर्तन-भजन सुनावें। गीताजी का पाठ सुनावें। (कहीं कहीं शव का सिर उत्तर दिशा में रखते हैं जो उचित नहीं है क्योंकि उस स्थिति में पैर दक्षिण दिशा में होते हैं जो यम की दिशा है।)
अंतकाल का एक सीधा (सूखी रसोई) देते हैं। पीतल की थाली या टोपिया में, नहीं हो तो स्टील की थाली/टोपिया में सीधा (आटा, दाल, चावल, घी, नमक, जीरा, हल्दी, लाल मिर्च, चीनी) किसी को दे दें।
जब व्यक्ति श्रीजी शरण हो जावे तब पहले लगाया था वैसे ही नया चौका लगाकर आंगन में दक्षिण की तरफ सिर करके शव को सुला दें। कुशा का आसन हो तो वो भी उसके नीचे बिछा दें। रेणुका व काले तिल शव के नीचे डालें। शव को श्मशान ले जाने का सामान बाहर से आता है। तुलसी का गमला शव के मस्तक के पीछे रखें। गमले के पास अगरबत्ती जलायें। हाथ-पांव मुड़े हों तो सीधा कर दें। आंख खुली हो तो बन्द कर दें। मुंह खुला हो तो बन्द कर दें । बन्द नहीं होता हो तो ठोड़ी से सिर तक 4-6 इंच चौड़ा लाल/पीला कपड़ा लेकर बांध दें। औरत हो तो हाथ की चूड़ियां शीघ्र निकाल लें। (बाद में हाथ कड़े होने से नहीं खुलती।)
यदि बाहर से आनेवालों का इन्तजार करना हो तो शव के चारों तरफ हल्दी की लाइन लगा दें ताकि जीव-जन्तु शव के पास नहीं आ सकें।
यदि बाहर से आनेवालों के लिये एक या दो दिन शव को रखना हो तो बरफ की सिला से शव को चारों तरफ ठण्डक पहुंचाते हैं, परन्तु ध्यान रखना है कि बरफ का पानी शव को नहीं लगे। एक या दो व्यक्ति निरन्तर शव की चौकसी करते हैं ताकि कोई कीड़े-मकोड़े, मच्छर एवं मक्खियां शव को नहीं छूवे। बरफ का पानी भी नहीं छूना चाहिये।
सुविधा हो तो ठण्डी पेटी की व्यवस्था करनी चाहिये। पूरे समय भजन / कीर्तन करते रहना चाहिये।
पण्डितजी को पूछ लेना चाहिये कि देहावसान के समय पंचक का दोष तो नहीं है। यदि पंचक का दोष हो तो समुचित पूजा करनी चाहिये।
शव के स्नान के पहले पुत्रगण, पौत्रगण, छोटे भाईगण व अन्य छोटों का मुण्डन कराने का विधान है। परन्तु आजकल कुछ लोग मुण्डन नहीं कराते हैं एवं कुछ लोग बालों को Trim करा लेते हैं।
मुण्डन अथवा बालों को Trim अथवा कुछ भी नहीं हो तो भी मुख्य क्रियाकर्म करनेवाले पुत्र एवं कन्धा देनेवाले छोटे पुत्र, पौत्र, भाई आदि को स्नान करना चाहिये।
स्नान के पश्चात् क्रियाकर्म हेतु लाये हुये सफेद वस्त्रों की चार मीटर की धोती, दो मीटर का दुपट्टा एवं एक मीटर कपड़े को सिर पर बांधते हैं।
शव की तैयारी का सामान सब बाहर से आता है। सामान आने के बाद पीतल के बर्तन में गंगाजल हल्का गर्म करके उससे मृतात्मा पुरुष को बेटे-पोते एवं औरत को बहूयें नहलाती हैं। जिस बर्तन से नहलाते हैं उसे घर में नहीं रखते। खोले हुये कपड़े एवं बिछाई हुई चद्दर आदि गरीबों को दे देते हैं। देश में हरिजन ले जाता है।
पुरुष को नहलाकर छाती, पीठ एवं हाथों पर गोपीचन्दन से राम-राम लिखें। पांव पर गोपीचन्दन न लगावें। पुरुष के लिये 2 इंच व 6 इंच चौड़ी सफेद कपड़े की 2 पट्टी फाड़कर, छोटी पट्टी कमर में बांधें। चौड़ी पट्टी की लंगोटी बांधें। फिर धोती या मुकटा पहिनावें। छाती पर गीताजी रखें। तुलसी की माला पहिनावें । कपड़े को बीच से फाड़कर उसका चोला पहिनावें । ललाट पर तिलक करें। भगवान का ओढ़ा हुआ दुपट्टा हो तो वह ओढ़ावें। घर का दुशाला ओढ़ावें। अर्थी पर सुलाने के बाद पुरुष को सर्वप्रथम ससुराल का दुशाला ओढ़ाते हैं। अगर ससुरालवाले शहर में हों तो वे खुद ओढ़ावें। बेटे के ससुराल का भी दुशाला ओढ़ावें। जितने बेटे हों उन सब के ससुरालवालों के दुशाले ओढ़ावें। बेटे के ससुरालवाले शहर में हो तो वे खुद ओढ़ावें। दूसरे सगे भी दुशाला ओढ़ा सकते हैं। लगाई गई गांठें चिता पर सुलाने के समय खोल देनी चाहिये। जौ के आटे का एक पिण्ड पण्डितजी के मन्त्रोच्चारण पश्चात् क्रियाकर्म करनेवाला पुत्र शव की छाती पर रखता है, जिसे मृत्यु स्थान का पिण्ड कहते हैं।
सुहागिन औरत हो तो बहूयें व पोतों की बहूयें नहलावें। पीठ, छाती व हाथों पर गोपीचन्दन से राम-राम लिखें। पांवों पर गोपीचन्दन न लगावें। लाल कपड़े की दो इंच व छ इंच की दो पट्टी फाड़कर, छोटी पट्टी कमर में बांध देवें एवं चौड़ी पट्टी से लंगोटी बांध देवें। छाती पर लाल ब्लाउज-पीस बांध देवें। छाती पर गीताजी रखें। तुलसी की माला पहिनावें। लाल कपड़ा दो मीटर का पेटीकोट की तरह लपेटकर गांठ बांध देवें। एक मीटर लाल कपड़े को बीच में से फाड़कर गले में से पहिनावें। लाल साड़ी से सिर ढ़क के पहनावें। भगवान का दुपट्टा हो तो वह ओढ़ा देवें। पूरा शृंगार करें। टीकी लगावें, मांग भरें (मांग पति से भरावें)। हाथ-पांव में मेहंदी लगावें। गहने पहिनावें। टीका, नथ, मंगलसूत्र, पाजेब, बिछुड़ी पहिनावें। हाथ में लाख की चूड़ियां बड़ी साईज की बाजार से मंगाकर पहिनावें, (घर की चुड़ी उस समय हाथों में नहीं आती है।) बाहरवाली चूड़ी भी न आवे तो दोनों हाथों में मोळी बांध देवें। घर का पीळा ओढ़ावें। पिहर की चुनड़ी ओढ़ाते हैं । उसी शहर में पिहर हो तो भाई खुद चुनड़ी ओढ़ावे । भाई मौजूद नहीं हो तो भतीजा ओढ़ावे। भाई-भतीजा दोनों ही नहीं हो तो पिहर के परिवार का दूसरा भाई या भतीजा ओढ़ावे। अर्थी पर सुलाने के बाद फूलों से सजावें। बेटे के ससुराल का दुशाला ओढ़ावें। जितने बेटे हों उन सब के ससुराल के (सगे कहें तो) दुशाला ओढ़ावे। जहां जहां गांठ लगाई गई हो उन्हें चिता पर सुलाने के समय खोल देनी चाहिये। जौ के आटे का एक पिण्ड पण्डितजी के मन्त्रोच्चारण पश्चात् क्रियाकर्म करनेवाला पुत्र शव की छाती पर रखता है।
नोट: औरत को जो भी गहना पहिनायें, वह किसी जिम्मेदार आदमी / मुनीम या सम्बन्धी को बता दें ताकि दाग देने के पहले सारी चीजें उतार लेवे। संख्या भी बता देवें।
गलती से कोई गहना रह जावे तो उस चीज की घर में ओख हो जाती है। औरत की श्मसान- यात्रा का खर्च पिहरवालों द्वारा पूर्ति करने का रिवाज है।
विधवा औरत हो तो उसे बहूएं-- पोते की बहू नहलाएं। छाती, पीठ व हाथों पर गोपीचन्दन से राम-राम लिखें। पांवों पर गोपीचन्दन न लगावें। छाती पर लाल ब्लाउज बांध देवें। लाल कपड़े की दो इंच व छ इंच की, दो पट्टी फाड़कर छोटी पट्टी कमर में बांध देवें। चौड़ी पट्टी से लंगोटी बांध देवें। (छाती व कमर की पट्टी सुहागिन व विधवा को लाल ही बांधने का विधान है।) सफेद दो मीटर कपड़े का पेटीकोट पहिनाकर सामने गांठ लगा देवें। एक मीटर सफेद कपड़ा को बीच में से फाड़कर ब्लाउज पहिना दें। छाती पर गीताजी रखें। गले में तुलसी की माला पहिनावें। अच्छी सी साड़ी पहिनावें । केसर का तिलक करें। घर का दुशाला या रेशमी चद्दर ओढ़ावें। भगवान का ओढ़ा हुआ दुपट्टा ओढ़ावें । पिहर का दुशाला ओढ़ावें। उसी शहर में भाई हो तो वह ओढ़ावे। भाई हाजिर नहीं हो तो भतीजा ओढ़ावे। भाई-भतीजा दोनों नहीं हो तो उस परिवार का दूसरा भाई-भतीजा ओढ़ा देवे।
अर्थी पर सुलाने के बाद फूलों से सजावें। बेटे के ससुराल का दुशाला ओढ़ावें । जितने बेटे हों उन सबके ससुराल के (सगे कहें तो) दुशाला ओढ़ावें । चिता पर सुलाने के समय जहां जहां गांठ लगाई गई हो उन्हें खोल देना चाहिये। जौ के आटे का एक पिण्ड पण्डितजी के मन्त्रोच्चारण पश्चात् क्रियाकर्म करनेवाला पुत्र शव की छाती पर रखता है।
औरत की श्मसान-यात्रा का खर्च पिहरवालों द्वारा पूर्ति करने का रिवाज है।
अर्थी तैयार होने के बाद शव को उत्तर-दक्षिण दिशा में लेटाएं, जिसमें पांव उत्तर दिशा में हों। मृत पुरुष/महिला से जितने छोटे हों वे बायें हाथ में नारियल लेकर शव की परिक्रमा कर पांव के पास नारियल रखकर प्रणाम करें। पत्नी भी अपने बायें हाथ में नारियल लेकर शव की परिक्रमा करे व पांव पर नारियल चढ़ावे। अपने हाथ की चूड़ियां खोलकर पांव पर रखे। पत्नी को सहयोग हेतु उसका लड़का अथवा कोई विधवा संग जाकर इस प्रक्रिया को पूरी करावे । सुहागिन स्त्री साथ में नहीं जावे।
पुरुष हो या स्त्री, अर्थी कंधे पर ही उठाते हैं। अगर प्रपौत्र हो तो पहला कंधा वह दे। यदि प्रपौत्र छोटा हो तो अर्थी को पहला हाथ उससे लगवायें। फिर पौत्र कंधा दे। अर्थी को शव के सर को आगे रखते हुये ले जाते हैं।
आगे का कंधा जो क्रियाकर्म करे वह पुत्र देवे। सिर की तरफ का कंधा पुत्र दें। सभी पहले बायां कंधा दें। स्त्री सुहागिन हो तो पति कंधा दे। (पुराने जमाने में छोटी उम्र में पत्नी की मृत्यु होती तो पति कंधा नहीं देता था एवं श्मशान भी नहीं जाता था। यह सही नहीं है। दूसरी शादी करे तो भी सम्मान हेतु कंधा देना चाहिये एवं श्मशान भी जाना चाहिये ।)
अर्थी प्रस्थान करे उसके आगे-आगे बड़ी बहू एवं पीछे-पीछे छोटी बहूवें एवं पोतों की बहूवें सामने का रास्ता अपने पल्लू से साफ करने की प्रक्रिया करें। साड़ी का पल्लू बायें हाथ में लेकर जमीन को पल्लू से झाड़ने की प्रक्रिया करते हुये गेट तक जायें। अर्थी निकल जावे तब प्रणामकर वहीं एक तरफ घर की सभी औरतें खड़ी हो जांय एवं बाहर से आई महिलाओं को विदा करें।
घर में जहां मृतात्मा को पसारा था उस जगह को बहूएं साफ करती हैं। ये सारे काम बायें हाथ करती हैं, बाकी घर को नौकरों से धुला- पुंछाकर सफाई करा लेते हैं। जहां मृतात्मा का सिर रखा हुआ था वहां पाटा रख देते हैं। पाटे पर तुलसीजी का पौधा रख देते हैं। चौके में कुछ भी खाना बना हुआ हो तो वह सब निकाल देते हैं। सभी सिर धोकर नहाती हैं। पति की मृत्यु पर पत्नी भी सर धोकर नहाती है एवं तिलांजलि बहूओं द्वारा देने के पश्चात् देती है। पत्नी भी कार्पेट पर बहूओं आदि के साथ बैठ जाती है। मृतक से छोटी सब बहूएं एक जगह ही नहाती हैं (आजकल सब अपने अपने घर जाकर नहाकर आती हैं)। नहाकर सब एकत्र हो जाती हैं।
श्मशान के दरवाजे अथवा रास्ते में कहीं पर शव को जमीन पर रखते हैं। पहलेवाला पिण्ड निकालकर फेंक देते हैं एवं पण्डितजी के मन्त्रोच्चारण के पश्चात् जौ का दूसरा पिण्ड छाती पर पुत्र रखता है जिसे विश्राम का पिण्ड कहते हैं। यहां से शव यात्रा में अर्थी को घुमाकर शव के पैर आगे एवं सर पीछे करते हैं। साथही जिन पुत्रों / व्यक्तियों ने कन्धा आगे दिया था उनको पीछे एवं जिन्होंने पीछे कन्धा दिया था उनको आगे कन्धा देना चाहिये।
श्मशान पहुंचने के पश्चात् चिता पर शव को रखने के पूर्व मन्त्रोच्चारण के पश्चात् विश्राम पिण्ड को निकालकर फेंक देते हैं एवं पुत्र उड़द की दाल के आटे का पिण्ड छाती पर रखता है जिसे चिता का पिण्ड कहते हैं।
पुरुष एवं महिलाएं नहाने के बाद पीतल की परात एवं एक टोपिये में पानी, कुशा, जौ, तिल, डालकर घर के दरवाजे के बाहर एक एक धोबा पानी परात में देकर घर में आकर कार्पेट बिछाकर बैठ जाते हैं। तिलान्जलि दें तब यह श्लोक बोलें--
अद्य.............. गोत्रः (अपना गोत्र का नाम लें), .................. (अपना नाम लें) गुप्तः ....................... (मृत का नाम लें) प्रेतः
चितादाहजनित तापतृषोपशमनाय
एष तिल तोयोजंलिस्ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम्।
प्रतिदिनः प्रातः 10 दिन तक अपसव्य होकर (जनेऊधारी को अपनी जनेऊ दाहिने कंधे से निकालकर बायें कंधे करने को अपसव्य होना कहते हैं।) दक्षिणाभिमुख होकर कुशा, तिल एवं जल, दोनों हाथों की अंजलि में लेकर उपरोक्त संकल्प बोलें एवं अपनी दोनों हाथों की अंजलि को दाहिनी तरफ मोड़ते हुये तिलांजलि छोड़ना है। दूसरी, तीसरी आदि तिलांजलि हेतु पुनः कुशा, तिल एवं जल दोनों हाथों की अंजलि में लेकर संकल्प बोलते हैं।
जब पुरुष लोग दाग देकर घर आ जाते हैं, तब ही चुल्हा जलता है। उस समय तक घर में रसोई नहीं बनती है। रसोई का सामान चावल, दाल, घी, चीनी, नमक, मसाले, आटा, लड़के/पोते के ससुराल की तरफ से आता है। आज के दिन रसोई में हल्दी उपयोग में नहीं लेते हैं। (परन्तु आजकल सगे बनी हुई रसोई ही भेजते हैं।) अगर उस शहर में सगे नहीं हों तो दूसरों से वे रसोई की व्यवस्था कराते हैं । लागत के रुपये लड़के के ससुरालवाले उन्हें भेज देते हैं, अथवा बाजार से रसोई के सामान की व्यवस्था करा देते हैं।
पुरुष हो तो -- (धोती, चोला, गंजी, तुवाल, रुमाल, सोने की अंगुठी, चांदी का बर्तन, साबुन, तेल, हजामत का सामान, पाउडर। औरत हो तो -- (साड़ी, ब्लाउज, पेटीकोट, रुमाल, नाक का सोने का लौंग, सोने की अंगूठी, चांदी की पायजेब, बिछुड़ी, टीकी, काजल, पाउडर, साबुन, तेल।
दूसरे दिन अस्थि संचय हेतु श्मशान जाते हैं। (पंचक या शनिवार / मंगलवार/अमावश्या हो तो टालते हैं। पण्डितजी को पूछ लेते हैं।) दाह-संस्कार जो बेटा (कत्ता) करता है; वह जाता है। दूसरे बेटे या पोते अस्थि संचय में मदद के लिये साथ जा सकते हैं। अस्थि संचय कर घर पर नहीं लाते हैं। एक हांडी में अस्थि रखकर ऊपर से मुंह पर लाल कपड़ा बांधकर श्मशान के रखवालों के पास सुरक्षित रखा देते हैं। अगले दिन अथवा जिस दिन अस्थि विसर्जन हेतु पुत्र/पौत्र/भाई हरिद्वार (तीर्थ) जाता है, उस दिन अस्थिकलश को घर पर लाकर दूध मिश्रित पानी से धोकर अस्थियों की पूजा होती है। (एक लाल या पीली रेशम की थैली बनाते हैं उसमें रेशम की रस्सी डालते हैं।) रस्सी इतनी बड़ी बनायें कि जो बेटा / पोता/भाई हरिद्वार या अन्य तीर्थ- स्थल जाये उसके गले में सिर से पहिना सकें।) पण्डितजी अस्थियों की क्रियाकर्म करनेवाले पुत्र से पूजा कराते हैं।
पूजा के बाद अस्थि को सुखाकर रेशम की थैली में रखकर पाटे पर रखते हैं। मृतात्मा से छोटे उस पाटे की 4 परिक्रमा, कीर्तन करते हुये करते हैं। जो बेटा क्रियाकर्म करता है वह अस्थि की थैली को हाथ में लेकर (यह सारी पूजा पति-पत्नी जोड़ा से की जाती है।) अपने Flat से Building के Main Gate के बाहर Lobby तक परिवार सहित कीर्तन करते हुये जाते हैं एवं जो बेटा/पोता/भाई हरिद्वार / अन्य तीर्थस्थान जाता है उसके गले में वह थैली पहिना देते हैं। हरिद्वार/अन्य तीर्थस्थान पति-पत्नी दोनों जाते हैं। वे गठजोड़ा लगाकर अस्थि का कलश लेते हैं। हरिद्वार जाकर वे पण्डाजी से मिलते हैं। (पण्डाजी से फोन द्वारा अग्रिम संपर्क करते हुये उन्हें बता देते हैं कि वे कब पहुंच रहे हैं। अस्थि पूजा एवं विसर्जन का काम हरिद्वार अथवा अन्य तीर्थ के पण्डाजी करा देते हैं। वहां श्रद्धा के अनुसार गरीबों को भोजन कराया जाता है, जिसकी व्यवस्था पण्डाजी करा देते हैं। पण्डाजी को घर से लाया सामान एवं दक्षिणा देते हैं। गरीबों के भोजन आदि का खर्च भी उन्हीं को देते हैं। हरिद्वार अथवा अन्य तीर्थ के गंगाजल की झारी, तुलसी की माला आदि पण्डाजी दिला देते हैं।
जिस दिन हरिद्वार /तीर्थ जाते हैं उसी दिन से मकान के नीचे / बाहर किसी पेड़ या पौधे के पास एक पत्थर रखकर पथवारी सींचते हैं। हरिद्वार /तीर्थ से वापस आते हैं तब तक प्रतिदिन पथवारी सींचते हैं। जब हरिद्वार/तीर्थ से वह पुत्र / पोता / भाई / पत्नी सहित घर पहुंचता है तब सभी घरवाले हरिद्वार से आनेवाले पुत्र/पोता/भाई एवं पत्नी को लेने के लिये कीर्तन करते हुये मकान के गेट पर एकत्र होते हैं। हरिद्वार से आनेवाला पुत्र / पोता/भाई एवं पत्नी को गठजोड़े से एवं तनवा करके हरि कीर्तन करते हुये घर में लाते हैं। गंगाजल की झारी, माला, मखाना आदि जो हरिद्वार/तीर्थ से लाये हैं उन्हें घर के मन्दिर में रख देते हैं। (बारहवें दिन गंगाजल की झारी खोलते हैं एवं माला, प्रसाद सबको बांटते हैं।) हरिद्वार से आने के बाद पथवारी नहीं सींचते हैं। मृत्यु पश्चात् अस्थि विसर्जन तक की यात्रा निर्विघ्न हो इसलिये पत्थर में देवता को आह्वानकर उस की पूजा करते हैं जिसे पथवारी सींचना कहते हैं।
तीसरे दिन बिना नमक की मूंग और चावल की रसोई बनती है। इसके अलावा रिवाज के अनुसार सीरा, पूड़ी, सब्जी भी बनती है। तीसरे दिन से कागोल देना (कौवा को प्रथम भोजन देने को कागोल देना कहते हैं ।) शुरू करते हैं। तीसरे दिन से गांव में रहनेवाले भाई एवं बहिन/बेटी हों तो उनको साथ जीमने का बोलते हैं। इसी दिन आंगन में जहां मृतक का सिर रखा था वहां सूर्यास्त के बाद दीपक जलाते हैं। एक थाली में मिट्टी रखकर उसके ऊपर माटी के दिये में तेल डालकर, उसके ऊपर उल्टी चलनी किसी चीज का सहारा लेकर थोड़ी टेढ़ीकर रखते हैं। तीसरे दिन मृतक से छोटी बहुएं पहले दिन की तरह सिर धोकर नहाती हैं। सभी पुरुष एवं स्त्रियां पहले दिन की तरह प्रातः घरके बाहर एक परात रखें। एक टोपिया में जल, कुशा, तिल डालकर 3-3 तिलांजलि दें। दक्षिण दिशा में मुंह करते हुये तिलांजलि दी जाती है। प्रत्येक तिलांजलि देते समय उपरोक्त श्लोक बोलते हैं।
घर में कार्पेट पर सभी बैठ जाते हैं। पुरुषों की बैठक एवं महिलाओं की बैठक प्रारम्भ होती है। तीसरे दिन से रोज अलग अलग तरह की रसोई भी बनाते हैं।
तीसरे दिन से ही एक अभ्यागत को जिमाना शुरू करते हैं। अभ्यागत के लिये थाली, गिलास, कटोरी, चम्मच अलग ही रखते हैं। रोज उसी में जिमाते हैं। बारहवें दिन के बाद ये बर्तन एवं मृत- प्राणी की पुरानी पोशाक एवं एक जोड़ी नये कपड़े और रुपये देकर अभ्यागत को विदा करते हैं। (अभ्यागत का अर्थ अतिथि अर्थात् सामान्य स्थिति का कोई भी व्यक्ति होता है)।
तीसरे दिन से शाम को 5 या 6 बजे गरुड़पुराण की कथा या गीता पाठ शुरु करते हैं जो दसवें दिन तक चालू रहती है। कथा के बाद एक घण्टा कीर्तन करते हैं।
चौथे दिन से 10 वें दिन प्रत्येक प्रातःकाल दसगात्र की प्रक्रिया पण्डितजी कराते हैं। यह प्रक्रिया तलाव या नदी के किनारे होती है। ऐसी मान्यता है कि चौथे दिन से मृतात्मा के नये शरीर का निर्माण प्रारम्भ होकर 10 वें दिन पूर्ण होता है। कुछ लोग यह प्रक्रिया 10 वें दिन ही एक साथ सम्पन्न कराते हैं।
चौथे दिन से 9 वें दिन तक के पिण्ड जौ के आटे के होते हैं 10 वें दिन का पिण्ड उड़द की दाल के आटे का होता है।
दसवें दिन सूर्यास्त के पहले बैठक उठा देते हैं। सभी बैठक की जगह से उठ जाते हैं। बिछायत को बायें पांव से सरका देते हैं। फिर नौकर को बोलकर झाडू लगा देते हैं एवं साबुन से धुलाई करवा लेते हैं। फिर जमीन पर नहीं बैठते हैं।
ग्यारहवें दिन पूरे घर की धुलाई करते हैं। चौके का सारा सामान मटकी वगैरह हटा देते हैं। ग्यारहवें दिन सूतक निकल जाता है। सभी बहुएं सर धोकर नहाती हैं। सभी बहुएं एवं आदमी व औरतें उसी प्रकार 11-11 तिलांजलि देते हैं।
ग्यारहवें दिन नारायणबली की पूजा होती है। यह पूजा घर में नहीं होती है। यह पूजा बाहर कहीं मन्दिर में होती है। तैयारी सब पण्डितजी करते हैं। घर से कुछ भी नहीं जाता । नारायणबली का छांटा आने पर ही घर में चूल्हा जलाते हैं। सभी घरों में तब फोन कर देते हैं कि छांटा आ गया है। (सुविधा हो तो छांटा घरों में भेज दें।) तब गंगाजल का छांटा डालकर रसोई कर लेते हैं। खिचड़ी, बड़ी की सब्जी, फुलका की रसोई होती है।
सपिण्डी पूजा का सामान पण्डितजी बताते हैं। सपिण्डी के 12 ब्राह्मण जीमते हैं। ब्राह्मणों की व्यवस्था पण्डितजी करा देते हैं।
विष्णु भगवान की पोशाक (धोती, चोला, गंजी, रुमाल, साड़ी, ब्लाउज), चांदी का बर्तन, सोने की 2 टिकड़ी, सोने के 5 तार, चांदी के 5 सिक्के, गंगाजली के लिये साड़ी एवं ब्लाउज, 12 लोटे, पुरुष हो तो 12 धोती, 12 गमछा, स्त्री हो तो 11 साड़ी, 11 ब्लाउज एवं एक धोती, एक गमछा।
बारहवें के सारे काम पूरे परिवारवालों की मौजूदगी में होते हैं। इसलिये सभी परिवार सदस्यों को बुलाया जाता है एवं साथ ही भोजन करने के लिये कहा जाता हैं। सर्वप्रथम सपिण्डी की पूजा होती है। पूजा का सामान पण्डितजी लाते हैं। पूजा के पश्चात् कागोलाव एवं पंचबलि निकालते हैं। फिर 12 ब्राह्मण घर पर भोजन करते हैं। 12 ब्राह्मणों के लिये रसोई घर पर ही घर की बहूओं द्वारा ही कराई जाती है। नौकर/रसोया से नहीं, बहिन या बेटी से भी नहीं। 12 पण्डितों को उपरोक्त सामान एवं दक्षिणा दी जाती है। श्रद्धा अनुसार 50 अथवा 100 ब्राह्मणों को भोजन कराना हो तो धर्मशाला अथवा मन्दिर में कराते हैं, उनको दक्षिणा भी देते हैं। गांवों में तो ब्रह्मपुरी होती है एवं उनको भी दक्षिणा घरदीठ (प्रत्येक घर को) धूवांदीठ (जितने चुल्हे जलते हैं उतने घर समझा जाता है।) अथवा जीवदीठ (प्रत्येक व्यक्ति पुरुष/स्त्री/बच्चा को) दी जाती है। इसके पश्चात् परिवार भोजन करता है।
उसी समय गंगाझारी खोलते हैं। जनेऊ पहिननेवाले उस समय ही जनेऊ बदलते हैं। मृत आत्मा के निमित्त एकादशी बोलते हैं। एकादशी बोलने का अर्थ है कि एक-पांच-दस या पूरे बारह महीनों की एकादशी अपनी श्रद्धा व क्षमतानुसार करने का संकल्प लेते हैं। श्रद्धा अनुसार अन्य धर्म-पूण्य भी करते हैं।
13 पद दिये जाते हैं। उनमें पुरुष हो तो -- (धोती, चोला, गंजी, गमछा, रुमाल, चप्पल, छतरी, अंगूठी, चांदी की कटोरी या गिलास, पंचपात्र, तामड़ी, चम्मच, साबुन, तेल, कंघा, कांच), भगवान की फोटो, गीताजी, माला, गौमुखी, आसन, पीतल की थाली एवं लोटा व थोड़ा गेहूं, टोकरी सामान रखने की। महिला हो तो -- (साड़ी, ब्लाउज, पेटीकोट, रुमाल, चप्पल, नाक का सोने का लौंग, चूड़ी, पाजेब, बिछुड़ी, कांच, कंघा, टीकी, काजल, तेल, साबुन, भगवान की फोटो, गीताजी, गोमुखी, माला, आसन, पीतल की थाली, लोटा एवं थोड़ा गेहूं, टोकरी सामान रखने की।
13 पद देने का संकल्प सपिण्डी पूजा के पश्चात् लिया जाता है। पद अपने परिवार, सगा- सम्बन्धी के घरों के ब्राह्मणों को दिये जाते हैं। ये पद उसी दिन भेज देने चाहिये।
धोती, चोला, गंजी, गमछा, रुमाल, सोने की चेन, अंगूठी, चांदी का बर्तन, साड़ी, ब्लाउज, पेटीकोट, रुमाल, नथ, (टीका, चुड़ा, हार, टॉप्स श्रद्धा अनुसार) टीकी, सिन्दूर, मेहंदी, पलंग, दरी, गद्दी खोली सहित (उस गद्दी का थोड़ा-सा मुंह खुला हो) तकिया, रजाई, चद्दर ओढ़ने एवं बिछाने की दोनों, दुशाला, छतरी, घड़ी, टोर्च, पंखा, साबुन, तेल, कंघा, कांच, बाल्टी, मग, चप्पल, थाली, गिलास, कटोरी, टोपिया, चम्मच, टिफन, सुपारी, इलायची, लौंग, सौंफ, मिठाई। भगवान की फोटो, माळा, गीताजी । इस हेतु कुछ लोग अपने गुरु को गांव से अथवा स्थानीय हो तो उसे बुलाते हैं।
सोने के पतरे पर लक्ष्मीनारायणजी भगवान की मूर्ति अंकित कराकर उसकी पूजा करके उपरोक्त सामान के साथ देते हैं।
सपिण्डी पूजा एवं सपिण्डी के 12 ब्राह्मणों के भोजन पश्चात् शैयादान के लिये मंगाये गये पलंग पर सतरंजी बिछाकर पथरना लगाते हैं। चद्दर लगाते हैं। तकिया व रजाई रखते हैं। कपड़े, गहने, चांदी के बर्तन एवं देनेवाला उपरोक्त पूरा सामान व लिफाफा रखते हैं। फिर गुरु को एवं गुरुआनी आई हो तो दोनों को पलंग पर बैठाते हैं। पण्डितजी पूजा कराते हैं। फिर गुरु एवं गुरुवानी को परिवार के सभी सदस्य एक एक ग्रास, मिठाई खिलाकर प्रणाम करते हैं। फिर सभी पलंग पर बैठे गुरु एवं गुरुवानी की परिक्रमा करते हैं। पश्चात् परिवार के पुरुष सदस्य गुरु को पलंग पर उत्तराभिमुख (दक्षिण में सर एवं उत्तर में पैर ) सुलाकर झुलाते हैं।
तत्पश्चात् गुरु एवं गुरुवानी को अपना पूरा सामान लेकर प्रस्थान कराते हैं।
इसके बाद क्रियाकर्म करनेवाला पुत्र एवं परिवार के अन्य सदस्य हजामत करवाकर स्नान करते हैं। कपड़े बदलते हैं। तत्पश्चात पाग का दस्तूर होता है।
मृतात्मा पुरुष हो तो धोती, चोला, गंजी, टोपी, रुमाल, सोने की अंगूठी अथवा चेन (इच्छानुसार), चांदी का बर्तन, लिफाफा व दक्षिणा । मृतात्मा स्त्री हो तो - साड़ी, ब्लाउज, पेटीकोट, रुमाल, टीकी, काजल, पाजेब, बिछुड़ी, चान्दी का बर्तन, सोने की नथ या चूड़ा (इच्छानुसार), लिफाफा व दक्षिणा ।
पाग के दस्तूर पर पूरे परिवार सदस्य एकत्र होते हैं। सगे सम्बन्धियों को भी बुलाते हैं। इसलिये के दस्तूर का कार्यक्रम एक हॉल में आयोजित होता है जहां सम्मिलित होनेवाले व्यक्ति एकत्र हो सकें।
फोन द्वारा सगे सम्बन्धियों, मित्रों को व परिवारवालों को स्थान व समय की सूचना दी जाती है। एक चौकी, एक गद्दी, गलीचा, एक पाटा, गरुड़पुराण की पुस्तक जिसका वाचन पण्डितजी करते रहे हैं। (पूजा का सामान पण्डितजी लाते हैं।) पूजा की थाली-- (रोळी, मोळी, चावल, गुड़, दूब, जल की गड्डी), पूजा के लिये रुपये, पिता की टोपी या पेचा, चढ़ाने का लिफाफा, आरता का लिफाफा, छात का लिफाफा, उपस्थित लोगों के गरुड़पुराण पर लिफाफे चढ़ाने के लिये थाली ।
पाटा, लोटा पीतल का जल से भरा हुआ, (रोळी, मोळी, चावल, घोली हुई मेहंदी, पेपर नेपकीन।
घर में मुनीम/नौकर/महाराज को बोल देते हैं कि वापस आने के पहले बैठक को उठाकर उस जगह पूर्ववत् सोफा व कुर्सियां लगा दें एवं खिचड़ी एवं कच्ची बड़ी की सब्जी मुंह ओठने के लिये बनाकर रखें।
पाग के दस्तूर हेतु एकत्र होनेवाले स्थान पर सर्वप्रथम पण्डितजी गरुड़पुराण की शेष कथा सुनाते हैं एवं गरुड़पुराण का समापन करते हैं। बड़ा बेटा अथवा क्रिया करनेवाला व्यक्ति गरुड़पुराण की पूजा करता है। पण्डितजी को जो सामान देना होता है वह गरुड़पुराण पर चढ़ाते हैं। लिफाफा भी चढ़ाते हैं। पश्चात् घर के अन्य सदस्य एवं आये हुये समाज, परिवार, सम्बन्धी भी गरुड़पुराण पर अपना अपना लिफाफा थाली में चढ़ाते हैं। पश्चात् पूजा करानेवाला बड़ा बेटा अथवा क्रियाकर्म करनेवाला व्यक्ति गरुड़पुराण को अपने मस्तक पर धारण करता है। पण्डितजी अपने प्राप्त पूरे सामान एवं रुपयों को लेकर साथ में प्रस्थान करते हैं।
गेट के बाहर पण्डितजी को वह गरुड़पुराण समर्पण करता है। अपने हाथ-पैर जल से स्वच्छ करता है। (देश में तो गरुड़पुराण लेकर मन्दिर में समर्पण करते हैं। साथ में परिवार, सम्बन्धी व आये हुये मेहमान जाते हैं।) वापस आकर बड़ा लड़का चौकी पर लगाई गद्दी पर बैठता है। बाकी बेटे उसके पास गलीचे पर बैठते हैं एवं पाग के दस्तूर का कार्यक्रम होता है । पण्डितजी भी अपना सामान व रुपये अपने आदमी के साथ भेज देते हैं एवं अपने हाथ पैर धोकर वापस आ जाते हैं।
पण्डितजी सर्वप्रथम गणेशजी की पंचोपचार पूजा कराते हैं। पाग के दस्तूर में सर्वप्रथम पिता की पगड़ी/टोपी परिवार के उपस्थित वरिष्ठ सदस्य बड़े पुत्र को पहिनाते हैं। तत्पश्चात उस पगड़ी को उतार कर मामा तिलक करता है एवं अपनी लाई हुई ननिहाल की तरफ की पगड़ी/टोपी पहिनाता है एवं लिफाफा देता है। आजकल पगड़ी का रिवाज नहीं रहा है, इसलिये टोपी पहिनाते हैं। पुराने जमाने में तो पगड़ी के ऊपर ही पगड़ी चढ़ा देते थे, अब तो टोपी उतारकर दूसरी टोपी पहिनाते हैं। छोटे भाइयों को भी मामा नई टोपी पहिनाता है एवं लिफाफा देता है। कपड़े भी देता है। बहिन मौजूद हो तो उसे भी साड़ी, चूड़ियां एवं लिफाफा देता है।
इसके पश्चात् बड़े पुत्र के ससुरालवाले तिलक करके कपड़े व लिफाफा देते हैं। पहलेवाली टोपी उतारकर अपनी लाई हुई टोपी पहिनाते हैं। दूसरे भाई के ससुरालवाले भी अपने अपने जंवाई को तिलक करते हैं, टोपी पहिनाते हैं एवं लिफाफा देते हैं। इसी प्रकार सभी सगे अपनी बेटी, दोयतों, दोयती को भी कपड़े एवं लिफाफा देते हैं। ये सब कार्य पूर्ण होने के पश्चात् क्रियाकर्म करनेवाले पुत्र की बहिन अथवा भूवा सभी भाइयों का आरता करती है। आरते में सबसे बड़ा पुत्र लिफाफा देता है। नाई छात करता है। उसे लिफाफा देते हैं। पाग के दस्तूर के कार्य पूर्ण होने पर उपस्थित वन्धुवों को विदा हेतु गेट पर खड़े हो जाते हैं। सभी भाई परिवारवालों के साथ मन्दिर देव-दर्शन के लिये जाते हैं। आये हुये कुछ सम्बन्धी व हेत-प्यारवाले साथ में जाते हैं । मन्दिर-दर्शन के पश्चात् मन्दिर पर ही उन मेहमानों को परिवारवाले नमस्कार करते हैं एवं वे वहीं से विदा हो जाते हैं। सभी परिवारवाले घर आते हैं।
पाग के दस्तूर के पश्चात् पुरुषों के मन्दिर हेतु रवाना होने के पश्चात्, उसी स्थल पर एक पाटा लगा देते हैं। पानी भरा लोटा एवं रोळी, चावल एवं घोली हुई मेहंदी पाटे पर रखते हैं। सभी बहुएं पाटे के चारों तरफ बैठ जाती हैं। सर्वप्रथम बड़े पुत्र की पत्नी बायें हाथ से अपनी आंखें, पानी से पौंछती हैं फिर सभी महिलाएं अपनी आंखें बायें हाथ से पानी से पौंछती हैं। मृतात्मा की पत्नी भी अपनीं आंखें पौंछती है। सभी महिलाएं लोटे के पास रुपये रख देती हैं। सभी बहुएं एवं बेटियां ब्लाउज बदलती हैं। (आजकल अपने घर से ही लाल ब्लाउज पहिनकर आती हैं।) भूवा/बहिन उपस्थित महिलाओं को तिलक करती है। महिलाएं अपनी बायें हाथ की चिटली अंगुली में मेहंदी लगाती हैं। फिर सभी महिलाएं मन्दिर जाती हैं। हॉल से बाहर निकलते समय गेट की बाईं तरफ मेहंदी पौंछ लेती हैं। (आजकल पेपर नेपकीन से पौंछ लेती है।) फिर मन्दिर जाती हैं। मृतात्मा की पत्नी मन्दिर नहीं जाती।
पुरुष मन्दिर से आते वक्त रास्ते में हरा धनिया/पुदीना की जूड़ी अपने हाथ में लेते हुये आते हैं। घर में आकर पहले चौके में पानी की मटकी के पास हरा धनिया / पुदीना की जूड़ी रखकर बड़ों को प्रणाम करते हैं व सोफा व कुर्सी पर बैठ जाते हैं। परिवार की महिलाएं मन्दिर दर्शन व चरणामृत लेने व शंख से छींटा लेने के पश्चात् सगों व मित्रों की महिलाओं को मन्दिर से ही नमस्कार कर विदा करा देती हैं। परिवार की 4/5 महिलाएं घर आ जाती हैं। महिलाएं आने पर वे भी सभी बड़ों को प्रणाम करती हैं व कमरों में पलंग व कुर्सियों पर बैठ जाती हैं। बहिन/बेटियां सबको खिचड़ी व बड़ी की सब्जी से मुंह ओठाती हैं। थोड़ी देर बाद सगे या बड़े जंवाई घरके पुरुषों को लेकर उनकी ऑफिस जाते हैं, वहां उनसे पैड पर पांच भगवान के नाम लिखाकर, थोड़ी देर रुककर घर आ जाते हैं। सगे वहीं से अपने घर चले जाते हैं।
आजकल सुविधा हेतु, मृतात्मा की छहमाही 14 वें या 15 वें दिन ही की जाती है। पण्डितजी को पूछकर 14 वें या 15 वें दिन का समय मुहूर्त अनुसार निश्चित किया जाता है। सामग्री पण्डितजी बताते हैं। छहमाही की पूजा में पिण्डदान एवं तर्पण होता है। पूजा के पश्चात् ही बहिन-बेटी अपने अपने घर जाती हैं। उस दिन निम्नानुसार 15 घड़े भरते हैं।
इस तरह 14 वें अथवा 15 वें दिन साढ़े ग्यारह महीने के कुल 15 घड़े भरे जाते हैं। बारहवें महीने का घड़ा बाकी रहता है जो साढ़े ग्यारह महीने होने पर परन्तु बारहवें महीने पूर्ण होने के पहले भरा जाता है। मृतात्मा महिला हो तो -- एक ब्राह्मण व चौदह ब्राह्मणी जिमाते हैं। मृतात्मा पुरुष हो तो -- पन्द्रह ब्राह्मण जिमाते हैं। उस दिन पूरे परिवार को भोजन हेतु बुलाते हैं। बहिन/बेटी/भाणजा/भाणजी/दोहीता / दोहीती सबको भोजन हेतु बुलाते हैं। मृतात्मा से बड़े उस रसोई में नहीं जीमते हैं।
पूजा का सामान पण्डितजी लाते हैं। घरका सामान - 15 लोटा । मृतात्मा पुरुष हो तो -- 15 धोती, 15 गमछे, 100 रु. के 15 लिफाफे । मृतात्मा महिला हो तो -- एक धोती, एक गमछा, 14 साड़ी, 14 ब्लाउज, 100 रु. के 15 लिफाफे।
इस भोजन में सामान्यतया निम्नानुसार रसोई बनाई जाती है। खीर, जलेबी या पूवा, दो साग, समोसा या कचोरी, दही बड़ा, (बेसन की कोई चीज नहीं बनाते हैं।) पूड़ी, चटनी, सलाद। छहमाही की पूजा व भोजन के पश्चात् बहिन/बेटी को कच्चे रंग की साड़ी पहनाकर बिदा करते हैं।
पूजा का दिन 11 महीने के बाद एवं 12 महीने के पहले मुहूर्त से निश्चित होता है। इस पूजा में भी पिण्डदान एवं तर्पण होता है। 8 ब्राह्मणों को बुलाते हैं।
पूजा की तैयारी पण्डितजी बताते हैं।
विष्णु भगवान की सोने की मूर्ति, सोने की एक टिकड़ी, चान्दी के 5 सिक्के, एक धोती, एक चोला, एक गंजी, एक रुमाल, एक गमछा, 8 धोती, 8 गमछे, 100 रुपये के 8 लिफाफे, पूजा होने के बाद 8 पण्डितों को जिमाकर, दक्षिणा देकर, परिवार की बहिन बेटियों को जिमाकर घरवाले जीमते हैं।
रसोई - खीर, जलेबी, दो सब्जी, दहीबडा, समोसा । पूड़ी, चटनी, सलाद। किसी भी श्राद्ध की रसोई में चने की दाल के बेसन का उपयोग नहीं करते हैं। पूरे परिवारवालों को बुलाते हैं । बहिन/बेटी/भाणजा/भाणजी/दोहीता/दोहीती सबको बुलाते हैं। मृतात्मा से बड़े इस रसोई में नहीं जीमते हैं।
साढ़े ग्यारह महीने का श्राद्ध होने के पश्चात् जब श्राद्ध पक्ष आये तब मृतात्मा को पितरों में सम्मिलित करते हैं। उसके बाद ही परिवार के अन्य मृत प्राणी का श्राद्ध होता है। मृत्यु की तिथि के अनुसार ही श्राद्ध पक्ष में आनेवाली तिथि को यह कार्यक्रम होता है।
चांदी के 4 सिक्के, सोने की 3 शलाका, मृतात्मा पुरुष हो तो -- 8 ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं। उनके लिये 8 धोती, 8 गमछा, 8 लोटा, 100 रुपये के 8 लिफाफे। मृतात्मा महिला हो तो-- उनके लिये एक ब्राह्मण एवं 7 ब्राह्मणी को भोजन कराते हैं। एक धोती, एक गमछा, 7 साड़ी, 7 ब्लाउज एवं 100 रुपयों के 8 लिफाफे।
रसोई: खीर, पूवा, कचोरी, दहीबड़ा, पूड़ी, दो साग, चटनी एवं सलाद। पूरे परिवार को भोजन के लिये बुलाते हैं। बहिन बेटी आदि को भी बुलाते हैं। मृतात्मा से बड़े इस रसोई में नहीं जीमते हैं।
पूजा की सामग्री पण्डितजी लाते हैं एवं विधि-पूर्वक पूजा कराते हैं, जिसमें पिण्डों की पूजा होती है एवं पिण्डों को आपस में मिलाते हैं। पश्चात् ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं एवं उन्हें उपरोक्त सामान व लिफाफा देते हैं। तत्पश्चात परिवार सदस्य भोजन करते हैं।