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Consultationपाणि-ग्रहण संस्कार व फेरे :
'पाणि' का अर्थ है हाथ एवं 'ग्रहण' का अर्थ है पकड़ना । पाणि-ग्रहण संस्कार में वर वधू का हाथ ग्रहण करता है। अर्थात् वर, वधू को आजन्म संभालने की जिम्मेदारी लेता है। इस प्रक्रिया में देवताओं का पूजन, वरणा, कन्यादान, गोदान, हवन, लाजाहोम, शिलारोहण, सप्तपदी, सूर्य व ध्रुवतारा का दर्शन, हृदय-स्पर्श एवं फेरे, वर-वधू के वचन आदि का विधान है।
लाजाहोम, शिलारोहण एवं सप्तपदी हमारे शास्त्रीय विवाह-संस्कार की महत्वपूर्ण प्रक्रियाएं हैं। इन प्रक्रियाओं के द्वारा वर-वधू आपस में वचन बद्ध होते हैं व प्रतिज्ञाएं करते हैं। अग्नि की साक्षी एवं उभय माता - पिता, पुरोहितों एवं परिवार सदस्यों के सन्मुख वर- वधू सम्मिलित प्रतिज्ञाएँ करते हैं। इन प्रक्रियाओं एवं प्रतिज्ञाओं के बल से वर-वधू आजीवन अपना जीवन तदनुसार व्यतीत करने में सफलता प्राप्त करते हैं/कर सकते हैं।
लाजा, धान की खीलों का संस्कृत नाम है । विवाह संस्कार में धान की खीलों की आहुतियां अग्नि में समर्पित करते हुए वर-वधू द्वारा यज्ञवेदी की परिक्रमाएं होती हैं। वधू का भाई, वधू के हाथों में धान की खीलें देता है। वधू पत्थर के एक टुकड़े पर दाहिना पैर रखते हुए (शलारोहण) खीलों की आहुतियां देती है। लाजाहोम और शिलारोहण दोनों विधियाँ वर-वधू को प्रेरणादायी सन्देश देती हैं। धान का पौधा जिस भूमि में बोया जाता है, उसी जमीन में उसे लगे रहने दें तो वह फलता नहीं व उसमें चावल के दाने नहीं उगते। उस पर अन्न फले इसलिये जरूरी है कि उसे बोयी हुई भूमि से निकालकर दूसरी भूमि में रोपा जाय। इसी भावना को भाई, वधू की अंजलि में धान की खीलें रखता हुआ प्रकट करता है- 'प्रिय बहिन! जिस तरह धान का पौधा एक भूमि में जन्म लेता है, किन्तु दूसरी भूमि में ही फलता-फूलता है, उसी तरह तुम भी माता-पिता के परिवार से अब पति के परिवार में जा रही हो, वहां सुख एवं सौभाग्य से फूलो-फलो। मैं (हम) तुम्हें विश्वास देता/देते हैं कि जीवन भर तुम्हारी अंजलि अपने प्रेम और सहयोग के पुष्पों से भरता/भरते रहेंगे।
इसी प्रकार शिलारोहण का सन्देश, वर-वधू के मन में यह भावना दृढ़ करता है कि जिस प्रकार पत्थर दृढ़ता का प्रतीक है, उसी प्रकार हम दोनों अपनी प्रतिज्ञाओं और वचनों पर सदा दृढ़ रहें। जिस तरह मिट्टी का ढ़ेला पत्थर पर टकरा कर खुद ही टूटता है, पत्थर कभी नहीं। उसी प्रकार कठिनाईयां एवं संघर्ष तो हमारे जीवन में आ सकते हैं परन्तु संघर्ष ही पराजित होंगे, हम कभी नहीं।
शिलारोहण सहित लाजाहोम की परिक्रमाओं के बाद वर-वधू यज्ञवेदी पर सात कदम साथ साथ चलते हैं जिसे सप्तपदी कहते हैं। वर-वधू हर कदम के साथ एक एक वचन बोलते हैं। शास्त्र का कहना है कि कोई भी दम्पती यदि इन वचनों का पालन करें तो उनके जीवन में सदा सुख- सौभाग्य बढ़ते ही रहेंगे। सात चरण साथ साथ चलने की प्रक्रिया इस प्रकार है कि वर-वधू प्रथम है अपने दाहिने पैर को साथ-साथ बढ़ाकर बायां पैर उसके बराबर में रखकर खड़े हो जाते हैं। यह एक चरण हुआ, उसी प्रकार कुल सात चरण साथ-साथ चलते हैं। नियम यह रहेगा कि बायां पैर दाहिना पैर से आगे न निकले, उसके बराबर ही रहे। वर-वधू प्रथम वचन में कहते हैं कि हम उन्नति के मार्ग पर साथ साथ आगे बढ़ने को तत्पर हुये हैं परन्तु हम बायें पैर को दाहिने पैर से आगे नहीं जाने देंगे अर्थात् मन की भावनाओं और इच्छाओं को अपनी बुद्धि एवं विवेक से आगे नहीं जाने देंगे एवं भावनाओं एवं इच्छाओं को समझदारी के साथ तृप्त करेंगे। सभी सुखों के साधनों को हम अपने प्रयत्न और परिश्रम से प्राप्त करते रहेंगे। द्वितीय वचन में वर-वधू कहते हैं कि हम शरीर, बुद्धि, मन, परिवार एवं समाज की शक्तियों का यथाशक्ति विकास करते रहेंगे। त्रितीय वचन में वर-वधू कहते हैं कि हम अपने धन, कारोबार, ज्ञान आदि ऐश्वर्यों को पुष्ट करते रहेंगे। चतुर्थ वचन में वर-वधू कहते है कि धन आदि ऐश्वर्यों की प्राप्ति के साथ साथ उनसे सुख, आनन्द और पुण्य प्राप्त करने का भी हम ध्यान रखेंगे। पंचम वचन में वर-वधू कहते हैं कि अपने वंश, पूर्वजों के सम्मान, यश, धर्म और संस्कृति को हम आगे बढ़ायेंगे। छठे वचन में वर-वधू कहते हैं कि हम अपने समाज और प्रकृति के वातावरण को स्वच्छ बनाने का यथाशक्ति प्रयास करेंगे। सप्तम वचन में वर-वधू कहते हैं कि हम आपस में और परिवार के सभी लोगों में सम्मान, प्रेम और सहयोग की भावना बनाये रखेंगे और सदा बढ़ाते रहेंगे।
सूर्यावलोकन के पश्चात् वर-वधू दक्षिण हस्त से एक-दूसरे के हृदय का स्पर्श करके निम्न मन्त्र का उच्चारण करते हैं-
ओम् मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनुचितं ते अस्तु ।
मम वाचमेकमना जुषस्व प्रजापतिस्त्वा नियुनयक्तु मह्यम् ॥
वर कहता हैं, हे वधू! मैं तेरे हृदय को अपने हृदय में धारण करता हूं। तुम्हारा चित्त सदा मेरे चित्त के अनुकूल रहे। मेरी वाणी पर तुम एकाग्रचित्त से ध्यान दिया करो। इस विवाह बन्धन ने तुम्हें मेरे लिए नियुक्त किया है।
इसी प्रकार वधू कहती है, हे प्रिय स्वामिन्! आपके हृदय, आत्मा और अन्त:करण को मैं अपने हृदय में धारण करती हूं। आपका चित्त सदा मेरे चित्त के अनुकूल रहे। आप मेरी बात को एकाग्रचित से श्रवण किया करें। आज से इस विवाह बन्धन ने आपको मेरे अधीन किया है।
यह हृदय-स्पर्श-विधि भारतीय विवाह की रजिस्ट्री है। जब कोई व्यक्ति कोई मकान आदि खरीदता है, तब कोर्ट में उसकी रजिस्ट्री होती है। वहां रजिस्ट्री में पहले एक काग़ज पर लिखा- पढ़ी होती है, तत्पश्चात कोर्ट में न्यायाधीश के समक्ष उसपर हस्ताक्षर होते हैं और अंगूठा लगाया जाता है। विवाह-संस्कार में भी यही सब कुछ किया गया है। यहां यज्ञमण्डप न्यायालय है। पुरोहित, जनता, स्त्रियां और पुरुष गवाह के रूप में उपस्थित हैं। वर और वधू का हृदय- पटल वह काग़ज़ है जिसपर विवाह-सम्बन्धी सभी बातें अंकित की गई हैं और अंगूठे के स्थान पर यहां पूरी हथेली की छाप लगाई गई है।
1. तीर्थ यात्रा, धार्मिक कार्यों एवं भ्रमण कार्यक्रम मेरी सहभागिता के साथ ही आप सम्पन्न करें तो आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं । वर स्वीकार करता है।
2. आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं । उसी प्रकार आप मेरे माता-पिता को भी पूजनीय समझें। अपने कुटुम्ब की समस्त मर्यादाओं का पालन करते हुए आप धार्मिक कार्यों में संलग्न रहें एवं जगत्नियन्ता परमात्मा में आप आस्था रखें । वर स्वीकार करता है।
3. पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति के प्रभाव से आज भारतीय संस्कृति छुटने का वातावरण बना हुआ है। अतः आप पाश्चात्य संस्कृति को महत्व नहीं देकर भारतीय संस्कृति में आस्था रखें, जैसे- हमारे महामना तिलकजी, मालवीयजी एवं गांधीजी आदि महानुभावों ने पाश्चात्य संस्कृति में रहकर भी अपनी भारतीय संस्कृति को अपनाकर जीवन अग्रसर किया था, इसी से मुझे प्रसन्नता होगी। अगर आप स्वीकार करते हों तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं। वर स्वीकार करता है।
4. अब तक आप गृहस्थ की चिन्ताओं से मुक्त थे। इस विवाह के पश्चात् गृहस्थ का समस्त भार आपको संभालना है और कटुम्ब की रक्षा करने का दायित्व भी आपके कन्धों पर है। इसको वहन करने की आपकी सहमति हो तो मैं आपके वामांग में आऊं । वर स्वीकार करता है।
5. गृहस्थ के कार्यों, व्यवहार, लेन-देन, क्रय-विक्रय में आप मेरी सलाह लिया करें। पुरुष धन उपार्जन करता है तो गृहलक्ष्मी समस्त व्यवस्थाएं करती हैं। उपरोक्त प्रतिज्ञा आपको स्वीकार हो तो मैं आपके वामांग में आऊं । वर स्वीकार करता है।
6. यदि मैं अपनी सहेलियों (Friends) के बीच में होऊं तो आप मेरा अपमान कदापि न करें। घर में एकान्त में आप मुझे कह सकते हैं। नशा, व्यसन, जूआ आदि दुव्यसनों का आप परित्याग करें तो मैं आपके वामांग में आऊँ । वर स्वीकार करता है।
7. भारतीय संस्कृति के अनुकूल अपने परिवार की मर्यादा का पालन करें। मातृशक्ति का आप सम्मान करें। आपसे उम्र में जो बड़ी हैं उनको आप मां के समान मानें एवं जो आपके बराबर व उम्र की हैं उनको आप बहिन के समान मानें एवं आपसे छोटी को पुत्रीवत् व्यवहार करें। पत्नी के रूप में आप एक मात्र मुझे ही देखें व मानें तो मैं आपकी पत्नी के रूप में आऊं । वर स्वीकार करता है।
आप मेरे मन अनुसार अपना मन बनायें । मेरे आदेशों का पालन करें। पार्टी, नाचघर अथवा मन्दिर आदि में बिना आज्ञा के अकेली न जायें। वाल्यावस्था में अब तक आप माता-पिता के स्नेह से पोषित हुई हैं। अब मेरे माता-पिता अर्थात् अपनी सास एवं ससुर का सम्मान करो, उनको अपने माता-पिता के समान मानो। घर के प्रत्येक सदस्य के साथ आप मृदुल व्यवहार करो। पतिव्रत धर्म का आप पालन करो तो आइये मैं भी आपका स्वागत करता हूं। वधू स्वीकार करती है।
ओम् समञ्जन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानि नौ ।
सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ ॥
वर एवं वधू दोनों कहते हैं : विवाह मण्डप में उपस्थित परिवार, मित्र, सम्बन्धियों! आपको साक्षी करते हुए हम प्रतिज्ञा करते हैं हम दोनों प्रसन्नता पूर्वक अपने मन से गृहस्थाश्रम में एक साथ रहने के लिए एक दूसरे को स्वीकार करते हैं। हम दोनों के हृदय जल के समान शान्त एवं मिले हुए रहेंगे। हम सदा प्रसन्न रहेंगे। हम दोनों सदा मिलकर रहेंगे। हम दोनों एक दूसरे से प्रेम करते रहेंगे।
ओम् अन्नपाशेन मणिना प्राणसूत्रेण पृचिना ।
बधामि सत्यग्रन्थिना मनश्च हृदयं च ते ॥
ओम् यदेतदृदयं तव तदस्तु हृदयं मम ।
यदिद हृदयं मम तदस्तु हृदयं तव ॥
वर एवं वधू दोनों कहते हैं : जैसे अन्न के साथ प्राण तथा प्राण के साथ अन्न एवं दोनों का अंतरिक्ष के साथ अटूट सम्बन्ध है वैसे ही हमारे मन, चित्त एवं हृदय एक दूसरे से सत्यग्रंथि द्वारा अटूट बन्धन में रहें। अब तुम्हारा हृदय सदा-सर्वदा के लिए मेरा हो जाय एवं मेरा हृदय सदा-सर्वदा के लिए तुम्हारा हो जाय एवं हम दोनों में असीम प्रेम रहे।
ओम् धुवा द्यौधुवा पृथिवी ध्रुवं विश्वमिदं जगत् ।
ध्रुवासः पर्वता इमे धुवा स्त्री पतिकुले इयम् ॥
वर कहता है: हे वधू! जिस प्रकार आकाश अपने कर्तव्य में स्थिर है, जिस प्रकार पृथ्वी अपने कर्त्तव्य में अविचल है, जिस प्रकार पर्वत अपने स्थान पर अडिग है, उसी प्रकार तुम अपने पतिकुल में कर्त्तव्यनिष्ठ व स्थिर रहना अर्थात् अपने पत्नी धर्म के कर्त्तव्यों से विमुख नहीं होना।
ओम् सम्राज्ञी श्वशुरे भव सम्राज्ञी श्वश्र्वां भव ।
ननान्दरी सम्राज्ञी भव सम्राज्ञी अधि देवृषु स्वाहा ॥
वर वधू से कहता है: हे वधू! तुम अपने ससुर को प्यार से जीतकर उनके हृदय पर राज्य करो, अपनी सास को भी प्रेम-पूर्वक उसके हृदय पर राज्य करो, अपनी ननद को प्रीति द्वारा उसके हृदय पर राज्य करो और अपने देवर व जेठ से बिना किसी प्रकार का विरोध करते हुए उनके हृदय पर राज्य करो।
यह एक विलक्षण उद्बोधन है एवं विशाल परिप्रेक्ष्य (Vision) में वधू को Empowerment किया जा रहा है। किसी का किसी पर Domination नहीं हो इसलिए एक गृहिणी को स्नेह, सद्भाव, सामञ्जस्य स्थापित करने की प्रेरणा दी जा रही है। ऐसे भाव जाग्रत एवं पुष्ट होनेपर परिवार में सुख, शान्ति, प्रेम, आदर व सद्भाव का वातावरण बन ही जाता है एवं भावी सन्तान में भी ऐसे संस्कार जाग्रत हो जाते हैं।
सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः ।
अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाध्न्या ॥
वर वधू को कहता है : हे वधू! तुम दीर्घकालपर्यन्त अक्षय सुख प्राप्त करती रहो। तुम सहृदय बनो अर्थात् Emphathy स्वभाव वाली बनो। अपने सास, ससुर, सन्तान, कर्मचारी, मित्र, पड़ोसी व अन्य सभी के प्रति द्वेष रहित मन द्वारा उनके साथ वात्सल्यपूर्ण व्यवहार का आचरण करो। जिस प्रकार एक गाय अपने नवजात बछड़े पर वात्सल्य का ही व्यवहार करती है, उसी प्रकार घर में परिवार एवं सभी स्वजनों के साथ तुम प्रेम पूर्वक व्यवहार करना।
सद्धिं होन्तु सुखी सब्बे परिवारेहि अत्तनो ।
अनीघा सुमना होन्तु सह सब्बेहि जातिभिः ॥
तुम दोनों परिवार सहित सभी प्रकार से सुखी रहो। तुम दोनों समाज में सब को सद्भावना पूर्वक सहयोग करते रहो। किसी को भी दुख व कष्ट न हो।
सुनक्खत्तं सुमंगलं सुप्पभातं सुहुट्ठितं ।
सुखणों सुमुहुत्तो च सुयिट्ठ ब्रह्मचारिसु ॥
तुम दोनों के लिए सभी नक्षत्र शुभ हों। तुम दोनों का सर्वत्र सदा मंगल हो। प्रात:काल से प्रारम्भ होकर सभी समय तुम दोनों का मंगलदायी हो। तुम दोनों द्वारा की गई परिजनों एवं अतिथियों की सेवा शुभ हो! शुभ हो ! शुभ हो!
भवतु सब्ब मंगलं रक्खन्तु सब्ब देवता ।
सब्ब धम्मानुभावेन सदा सुखी भवन्तु ते ॥
तुम दोनों का सब प्रकार से मंगल हो । सभी देवता तुम दोनों की रक्षा करें। सभी सद्धर्मों के सुप्रभाव से तुम दोनों सदैव सुखी रहो।
सुमंगलीरियं वधूरिमां समेत पश्यत् ।
सौभाग्यमस्यै दत्वायाथास्तं वि परेतन ।।
वर कहता है : उपस्थित स्वजनगण! यह वधू मेरे लिए अत्यन्त मंगलकारिणी है। आप सभी इसे सौभाग्य सूचक आशीर्वाद दें एवं भविष्य में भी आशीर्वाद देने के लिए पधारते रहें।
सन्तुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्रा भार्या तथैव च ।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् ॥
हे गृहस्थों! जिस परिवार में पत्नी पति से सन्तुष्ट रहती है एवं पति, पत्नी से संतुष्ट होता है उस परिवार का निरन्तर कल्याण होता है।
यदि हि स्त्री न रोचेत पुमांसं न प्रमोदयेत् ।
अप्रमोदात् पुनः पुंसः प्रजनं न प्रवर्त्तते ॥
जिस परिवार में पत्नी, पति से असन्तुष्ट है एवं प्रेम नहीं करती उस परिवार में नित्य कलह ही रहती है। ऐसे परिवार में या तो सन्तान होगी ही नहीं, यदि सन्तान होगी तो योग्य नहीं होगी।
स्त्रियान्तु रोचमानायां सर्वन्तद्रोचते कुलम् ।
तस्यां त्वरोचमानायां सर्वमेव न रोचते ॥
जिस परिवार में पति, पत्नी को प्रसन्न नहीं रखता। उसके पूरे परिवार में उदासी एवं अशान्ति रहती है। जिस परिवार में पत्नी, पति को प्रसन्न रखती है उस परिवार व कुल में आनन्द ही आनन्द एवं सुख ही सुख बना रहता है।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ॥
जिस परिवार में स्त्रियों का आदर रहता है उस घर में देवता रमण करते हैं, अर्थात् उस घर में चारों तरफ सुख-शान्ति रहती है एवं दिव्य गुणवाली उत्तम सन्तान होती है। जिस परिवार में स्त्रियों का आदर नहीं होता उस घर के कार्यों को सफलता नहीं मिलती।