The argument in favor of using filler text goes something like this: If you use real content in the Consulting Process, anytime you reach a review point you’ll end up reviewing and negotiating the content itself and not the design.
Consultationविवाह की मिति/तारीख निश्चित होने के पश्चात् विवाह के दिनांक से करीब तीन महीने पहले सभी परिवार सदस्यों, सम्बन्धियों एवं मित्रों को विवाह हेतु आने व सम्मिलित होने के लिये निमन्त्रण भेजते हैं जिसे मनुहार पत्रिका कहते हैं। बाहर गांव रहनेवाले परिवार सदस्यों, सम्बन्धियों व मित्रों को आने के लिये रेल आरक्षण पहले कराना होता है इसलिये 3 महीने की अवधि दी जाती है। स्थानीय लोगों का बाहर आना-जाना होता रहता है, इसलिये स्थानीय लोगों को भी मनुहार पत्रिका भेजना उचित है।
मनुहार पत्रिका भेजने के पश्चात् विवाह दिनांक से एक महीने पहले कुमकुम पत्रिका भेजते हैं। इस हेतु पत्रिका भेजने की सूची पतों व फोन सहित तैयार करने की आवश्यकता है। परिवार, मित्र, बहिन, बेटी, जंवाई, सगा सम्बन्धी/व्यापारिक/सामाजिक/राजनैतिक मित्रों को कुमकुम पत्रिका भेजने का रिवाज हो गया है। आजकल मात्र पत्रिका से लोग नहीं आते हैं, इसलिये निकट मित्र, परिवार, सगा, बहिन, बेटी, जंवाई आदि को व्यक्तिगत फोन करना उचित है। फोन के अतिरिक्त एस. एम. एस. भी भेजा जा सकता है।
पुराने जमाने में कुछ परिवारों में लड़की के विवाह में लग्न पत्रिका भेजने का रिवाज था जिसमें लड़की पक्ष के सभी छोटे-बड़े पुरुष सदस्यों के नाम से लड़के पक्ष के छोटे-बड़े सभी पुरुष सदस्यों को संबोधित करते पत्रिका भेजते थे। लेखन का संबोधन, विवरण विशिष्ठ होता था। यह पत्रिका लड़की पक्ष द्वारा सिर्फ वर पक्ष को ही देते थे। आजकल इसका रिवाज नहीं है। पत्रिका का एक नमूना जानकारी हेतु संलग्न है। तापड़िया परिवार में इस प्रकार की लग्न पत्रिका दी जाती है।
घर में कोई भी शुभ काम जैसे विवाह, गृह प्रवेश या धार्मिक अनुष्ठान करना हो तो मुहूर्त से ठीक 10 दिन पहले नान्दीमुख करवा लेते हैं (कहीं-कहीं सप्ताह भर पहले ) । इससे सूआ-सूतक का दोष नहीं लगता है। परिवार में सुख-दुख की घटना हो सकती है। सुआ की तो पहले से अन्दाज की सम्भावना है। फिर भी समय आगे पीछे हो जाता है। परन्तु सूतक, मौत तो कभी भी हो सकती है। अतः शुभ काम में विघ्न न पड़े इसलिए नान्दीमुख कराते हैं।
अपने स्थानीय पण्डितजी की सूचना अनुसार सामग्री एकत्र करनी चाहिये। पूजा लड़के/लड़की के माता-पिता अथवा विवाह व शुभ कार्य सम्पन्न करानेवाले व्यक्ति द्वारा ही होती है। यह पूजा शुभ दिन देखकर होती है। पूजा पण्डितजी कराते हैं ।
वर एवं वधू दोनों ही पक्ष की मां, विवाह का निमंत्रण देने अपने अपने पीहर जाती हैं और पिहरवालों को विवाह में सम्मिलित होने का न्योता देती हैं। इसे भात-न्योतना या बत्तीसी का दस्तूर कहते हैं। अच्छा दिन देखकर मां न्योता देने जाती हैं। इसे बत्तीसी न्यूतना भी कहते हैं। इस मांगलिक कार्य पर जाने के पहले बनड़ा-बनड़ी की मां हाथ में मेहंदी लगवाती है । न्योता के कार्यक्रम में गीत गाते हैं। पहले पांच गीत देवी-देवताओं के होते हैं। (गणेशजी, बालाजी, श्यामजी, माताजी, पीतरजी ।) फिर न्योता के गीत गाते हैं। देवी-देवताओं के गीत अध्याय 8 में दिये गये हैं।
32 रुपये, 32 सुपारी, 32 लौंग, 32 इलायची, 32 बादाम, 32 छुवारा, 32 पतासा, सवा कि. बाट, सवा कि. गुड़ (छोटे-छोटे गुड़ के मोदक आते हैं वे 11 रख सकते हैं।), बहिन (भाई को जब सामा लेती है तब सवा कि. चावल एवं सवा कि. गुड़ साथ में ले जाती है।) 2 चौकी या कुर्सी, आरता की थाली (रोळी, मोळी, चावल, गुड़, दूब, पानी की गड्डी), मुंह उठाने के लिये मिठाई, गिफ्ट का सामान, नारियल जितने भाई हों उतने, लिफाफे, ऊंवारी का लिफाफा। बहिन के लिये साड़ी एवं लिफाफा, जंवाई के लिये लिफाफा।
जोड़े से प्रत्येक भाई एवं भाभी को बैठाती है । बहिन तिलक करती है, मिठाई खिलाती है। भाई को गिफ्ट एवं भाभी को ब्लाउज देती है। (तापड़िया परिवार में ब्लाउज नहीं देते हैं, सभी भाई को गिफ्ट एवं भाभी को लिफाफा देते हैं।) सगे भाइयों को साथ बैठाकर उन्हें 32-32 उपरोक्त चीजें तथा बाट एवं गुड़ की ट्रे एक साथ देते हैं। काका-बाबा, भूवा-मामा के भाइयों को नारियल व लिफाफा देते हैं। (परन्तु तापड़िया परिवार में काका, बाबा सहित सभी भाइयों को एक साथ लेकर 32-32 चीजों का सामान देते हैं।) बहिन, भाइयों का आरता करती है। भाई आरता में लिफाफा देता है। बहिन ऊंवारी करती है। उसी बाट व गुड़ की लापसी एवं बड़ी की सब्जी बनती है, उससे बहिन को मुंह जुठाते हैं। बहिन वापस जाती है तब उसे तिलक कर साड़ी ओढ़ाते हैं। साथ में जंवाई आया हो तो उन्हें भी तिलक कर लिफाफा देते हैं।
एक चौकी, एक गद्दी, आरता की थाली (रोळी, मोळी, चावल, गुड़, दूब, जल की गड्डी), सवा कि. मूंग, सात थाली, बाहर से सम्मिलित होनेवाली महिलाओं के लिए गुड़ की थैलियां, ब्राह्मणियों के लिए लिफाफे, भोजन या नाश्ते की व्यवस्था ।
विवाह का कार्य प्रारम्भ करते हैं तब सबसे पहले मूंग बिखेरते हैं। इसे विवाह हाथ लेना व मूंग बिखेरना कहते हैं। विवाह के 5, 7, 11 दिन पहले अच्छा मुहूर्त देखकर विवाह-हाथ लेते हैं। इस दिन परिवार की महिलाओं, बहिन-बेटी, (ननिहालवाले शहर में हो तो उन्हें भी बुलाकर), कार्य प्रारम्भ करते हैं। कार्य के पहले दिन बनड़ा/ बनड़ी एवं बनड़ा/ बनड़ी की मां को मेहंदी के नाखून लगाते हैं। मुहूर्त के समय बनड़ा / बनड़ी को चौकी पर गद्दी बिछाकर पूरब की तरह मुंह कर के बिठा देते हैं। बनड़ा / बनड़ी की मां और सम्मिलित औरतें गलीचा या कार्पेट पर बैठ जाती हैं। बनड़ा/बनड़ी को तिलक किया जाता है। मोळी बांधी जाती है, गुड़ से मुंह जुठा देते हैं। ये सभी काम भूवा या बहिन करती है एवं एकत्र सभी को टीका भी निकालती है। मोळी बांधती है। घर की बड़ी महिला अथवा मां सात थाली में रोळी से सांखिया करती है। सवा कि. मूंग पहले मां व फिर 6 घर की बहूओं को चुनने को देते हैं। पांच गीत देवी-देवताओं के गाये जाते हैं। (विनायक, बालाजी, श्यामजी, माताजी, पितरजी) फिर बन्ना बन्नी के गीत गाये जाते हैं। लड़के के विवाह में घोड़ी गाते हैं एवं आखिर में सेवरा गाते हैं। लड़की के विवाह में आखिर में कामण गाते हैं। समापन पर सभी घरवालों को भोजन या नाश्ता कराया जाता है और जाते वक्त गुड़ देते हैं। ब्राह्मणियों को लिफाफे दिये जाते हैं। कुछ गीतों के नमूने अध्याय 8 में दिये गये हैं।
मूंग हरे रंग के होते हैं। हरित भूमि शस्य श्यामला कहलाती है एवं मानसिक उल्लास देने वाली मानी जाती है। मूंग हरे हैं उसी प्रकार हम भी लड़के लड़की के विवाह में हरे भरे रहें एवं प्रेममय रहें, इसी भाव व निमित्त हरे रंग के मूंग बिखेरने का विधान है। मूंग को शुभ माना जाता है।
सावा, बान एवं बान के जीमण का औपचारिक निमन्त्रण कार्यक्रम में उपस्थित होने एवं भोजन में सहभागी होने के लिये अग्रिम दिया जाता है। घर के मुखिया बान के भोजन का मेनु तय करते हैं। उपस्थित परिवार, अतिथिगण, मायरदार समूह एवं बाई, जंवाई सभी को भोजन करने का आग्रह किया जाता है।
सभी शुभकार्य प्रभु कृपा का प्रसाद है। मंगल परिणय भी इसी क्रम में है। विवाह का काम निर्विघ्न हो, इसलिए विवाह के शुभारंभ में गणेशजी एवं अपने इष्ट देवी-देवताओं की पूजा एवं आराधना की जाती है जिसे सावा पूजन कहते हैं।
दो चौकी, दो गद्दी, मां एवं पिताजी के लिये दो गद्दी, आरता की थाली (रोळी, मोळी, चावल, गुड़, दूब, जल की गड्डी), विवाह की पत्रिका मोळी बांधकर, नकद एक रुपया व एक नारियल, बतासा, चांदी की कटोरी में घी, आरता का नेग, रुपयों की थैली ।
7 पान, 7 सुपारी, रोळी, मोळी, चावल, गुड़, हल्दी की गांठ, लौंग, इलायची, केला, एक जनेऊ, मिट्टी का कलश, आम के पत्ते, अगरबत्ती, नारियल, गेहूं, बतासा, गुलाबी काग़ज़, लाल वस्त्र, सफेद वस्त्र, चावल, घी, हल्दी का पाउडर, फूल, दूर्वा, आरता की थाली (रोळी, मोळी, चावल, गुड़, दूब, जल की गड्डी), लोटा ।
सभी परिवारवालों एवं बहिन, बेटी, जंवाई एवं भाणजों को निमन्त्रण देते हैं। मायरदारों को (बनड़ा/बनड़ी के ननिहालवालों को मायरदार कहते हैं) व अपने खास सगे व मित्रगण को भी बुलाते हैं। विवाह कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हों, इसलिए घर के छोटे लड़के को विनायक बनाते हैं, जिसे गणेशजी का स्वरूप समझा जाता है। विनायक सावा पूजन के समय से वर/वधू के साथ रहता है। (विनायक सगे भाई को नहीं बनाते हैं। काका, बाबा, भूवा, बहिन व मामा के लड़के को बनाते हैं।) लड़का/लड़की व विनायक को चौकी पर बैठाते हैं। दो चौकी लगाते हैं। दाहिनी चौकी पर विनायक एवं बायीं चौकी पर लड़का / लड़की बैठते हैं। चौकी के नीचे मूंग व एक नकद रुपया रखते हैं। पण्डितजी घर के बड़ों (दादा/बाबा) के हाथ से गणेश-पूजन कराते हैं। घर के बड़ों द्वारा बनड़ा/बनड़ी को माला पहिनाते हैं। लड़की के विवाह में गुलाबी कागज पर लगन लिखा जाता है। लड़के के विवाह में पीळे चावल बनाये जाते हैं। (पण्डितजी सफेद कपड़े में चावल, घी, हल्दी तीनों को अच्छी तरह मिलाकर मसलते हैं तो चावल पीछे हो जाते हैं)। पुराने जमाने में बारात में ले जानेवाले व्यक्तियों को पीळे चावल, बारात में साथ जाने के बुलावा- स्वरूप देते थे। अब शकुन-स्वरूप घर के 4/5 व्यक्तियों को देते हैं। मिट्टी के एक कलश में जल डालकर आम के पत्ते लगाकर ऊपर नारियल रखते हैं। पूजा के पश्चात् इस कलश को जहां मायां माण्डते हैं वहां कुमकुम पत्रिका सहित (विवाह का कार्ड मोळी में बांधकर) रखा जाता है। पश्चात् भूवा/बहिन आरता करती है। गणेशजी की पूजा शुरू हो तब गीत गाते हैं। सर्वप्रथम देवी-देवताओं के पांच गीत गाते हैं। (विनायक, बालाजी, श्यामजी, माताजी, पित्तरजी), फिर बनड़ा/बनड़ी गाते हैं। लड़के का विवाह हो तो घोड़ी गाते हैं। फिर बनड़ा गाते हैं एवं आखिर में सेवरा गाते हैं। लड़की का विवाह हो तब पहले बनड़ी गाते हैं एवं आखिर में कामण गाते हैं।
लग्न-पत्रिका के साथ हल्दी की गांठ, मूंग, नकद रुपया आदि जो रखे जाते हैं, उनका संदर्भ है कि ये सभी मांगलिक समझे जाते हैं। पुराने जमाने में तो लग्न-पत्रिका विशिष्ठ लेखवाली होती थी, जिसका नमूना ऊपर दिया गया है। आजकल पण्डितजी लग्न-पत्रिका लिखते हैं।
सावा पूजन के साथ ही बान की पूजा आजकल सुविधा हेतु होती है। पुराने जमाने में सावा पूजन कुछ दिनों पूर्व हो जाता था एवं बान, विवाह के कार्यक्रम से जोड़कर होता था।
दो चौकी, दो गद्दी, एक गलीचा, एक पाटा, सफेद कपड़ा, आरता की थाली (रोळी, मोळी, चावल, गुड़, दूब, जल की गड्डी), आरता का लिफाफा, छात का लिफाफा, ओढ़ना, ऊखळ, मूसळ, दो छायला, दो बेलन, पीसने की घट्टी या मिक्सी, तणी के लिये मूंज की रस्सी (आजकल मोळी की तणी) बांधते हैं। ब्लाउज पीस, नमक की डळी, राई, सुपारी, मेवा, कोयला, बताशा, चांदी की अंगूठी, चांदी का चिटिया, पान-सुपारी की डब्बी, चांदी की कटोरी में घी, बतासा या मिश्री, भीगी हुई मूंग की दाल पीसकर, थोड़ा-सा चना, सात हल्दी की गांठ, सात नकद रुपये, मूंग, जौ, चावल, नमक की डलियां, एकत्र महिलाओं को देने के लिए दो तरह के पॉकेट- एक सावा हेतु दूसरा बान हेतु (एक गुड़ का, एक मिश्री का या जैसी इच्छा हो।)
एक चौकी पर बनड़ा/बनड़ी बैठते हैं। दूसरे पर विनायक को बैठाते हैं। सामने गलीचा पर माता- पिता पूजा के लिए बैठते हैं, तणी बांधते हैं। पहले पण्डिजी गणेशजी की पूजा कराते हैं बनड़ा/बनड़ी के सामने पाटा रखकर उसपर सफेद कपड़ा लगा देते हैं। बीच में कोयला, नमक की डळी, दूब, चांदी की अंगूठी व पानी की गड्डी रखते हैं। बनड़ा/ बनड़ी अपने हाथ से पीसी हुई दाल की 7 बड़ी बनाते हैं। 5-7 कुमारी लड़कियों को तिलककर उनसे बाकी दाल की बड़ी बनवाते हैं। भूवा, मां-बाप का आरता करती है। बनड़ा/बनड़ी का आरता भूवा/बहिन करती है। आरता करनेवाली भूवा/बहिन को लिफाफा देते हैं। बनड़ा/बनड़ी को हर समय चिटिया एवं पान- सुपारी की डब्बी साथ में रखने को कहा जाता है। दादी, बड़ी मां, मां, काकी- बनड़ा/बनड़ी को पतासा में घी लगाकर खिलाती हैं। जिनको बान भरना हो वे बनड़ा/बनड़ी को तिलक करके रुपया, मेवा, मिठाई (जो देना हो) उसी समय देते हैं।
चार महिलाएं ओढ़ने के चारों पल्लों को पकड़कर खड़ी हो जाती हैं। ओढ़ने के नीचे 2 गद्दी आमने-सामने बिछा देते हैं। बीच में थोड़ी जगह रखी जाती है। एक तरफ बनड़ा/बनड़ी की मां व दूसरी तरफ क्रमशः परिवार की बहुएं, दोनों छायला एवं बेलन लेकर बैठती हैं। छायला एवं बेलन को मोळी बांधते हैं। सभी बहूओं को टीका लगाकर मोळी बांधी जाती है। बेलन, हल्दी की गांठ, नकद रुपये, जौ, चावल, मूंग, नमक की डळियों को बनड़ा / बनड़ी की मां अपने छायले में डालकर सामने बैठी परिवार की बहू के छायले में डालती है। प्रारम्भ में ही बेलन को अलग रखते हुये उपरोक्त छह वस्तुओं को आजकल सुविधा हेतु एक प्लास्टिक थैली में रख लेते हैं। परिवार की बहू अपने छायले से वापस द्व बनड़ा/बनड़ी की मां के छायले में डालती है।
इस प्रकार कुल 7 बार बनड़ा / बनड़ी की मां एवं बहूओं के छायले में आदान-प्रदान होता है। ध्यान रखना होता है कि इस प्रक्रिया में आखिर में धान बनड़े / बनड़ी की मां के छायले में ही रह जाना चाहिये। परिवार की छह बहुएँ एक एक कर बनड़ा / बनड़ी की मां के साथ बैठती हैं। मामी -मौसी भी बैठ सकती हैं। समय की कमी रहती है इसलिये सभी चीजों को एक साथ मिलाकर कार्य सम्पन्न किया जाता है एवं बेलन अलग रखते हैं। (पुराने जमाने में उपरोक्त सात वस्तुओं को अलग अलग सात-सात बार आदान-प्रदान करती थीं।)
ऊखळ, मूसळ, घट्टी/मिक्सी को भी मोळी बांधी जाती है। ऊखल में जौ एवं चना डालकर थोड़ा-सा पानी डाला जाता है। मां एवं दूसरी छह बहूएं मिलकर जो उपरोक्त धान रोळती हैं, वही उखळ में धान कूटती हैं। बाद में घट्टी/मिक्सी में पीस लेती हैं। वे सातों ही महिलाएं घट्टी/मिक्सी को हाथ लगाती हैं। फिर वे सातों ही महिलाएँ शगुन की मेहंदी पीसती हैं। समय हो तो बनड़ा/बनड़ी को पीठी लगा देती हैं। पीठी चढ़ाना/ उतारना नहीं करती हैं। विरद विनायक (सांकड़ी राखी) वाले दिन ही पीठी चढ़ाना / उतारना करती हैं। (पुराने जमाने में विरद-विनायक 5/7 दिन का होता था। पहले दिन सिर्फ पीठी चढ़ाते थे, झोळ डालते थे व लख लेते थे एवं आखिरी दिन अथात् बीन बनानेवाले दिन पीठी उतारते थे, झोळ डालते थे व लख लेते थे। प्रारंभ के सभी दिन पिता बनड़े को पाटा से उतारता था परन्तु बीन बनानेवाले दिन मामा पाटा से उतारता था। समयाभाव से आजकल एक ही दिन पीठी चढ़ाना, पीठी उतारना, झोळ डालना एवं लख लेना होता है।)
पश्चात् पूरा परिवार भोजन करता है। इसे बान का जीमण कहते हैं। परिवार की महिलाओं को जाते वक्त एक गुड़ का एवं दूसरा मिश्री का, दो पॉकेट देते हैं। ब्राह्मणियों को लिफाफा देते हैं।
सावा/बान के बाद बनड़ा/बनड़ी के दोनों हाथों एवं पांवों में मेहंदी लगाते हैं। बनड़ा/ बनड़ी दोनों के ही बायें हाथ में सांथिया मांडते हैं एवं दाहिने हाथ के बीच में एक रुपया जितनी जगह गोलाकर खाली रखते हैं। (बनड़ा/बनड़ी के दाहिने हाथ की हथेली के मध्य में एक रुपया जितना गोलाकार खाली रखने का उद्देश्य है कि विवाह विधि में हथलेवा जोड़ते समय मेहंदी की गोली वर-वधू के दाहिने हाथों के मध्य रखी जाती है। हथलेवा की मेहंदी के रंग को महत्वपूर्ण मानते है) बनड़ा / बनड़ी की मां के दोनों हाथों एवं पांवों में मेहंदी सावा/बान के पहले ही लगा देते हैं। बायें हाथ में सांथिया एवं दाहिने हाथ में कलश मांडते हैं। विवाह के अतिरिक्त अन्य शुभ कार्यों जैसे जलवा, सगाई, बत्तीसी, मायरा आदि अवसरों पर इसी प्रकार मेहंदी मंडाई जाती है।
अपने परिवार के इष्ट देवी-देवता के कपड़े, पितर हों तो उनके भी कपड़े। (पितर के बारे में घर लेना चाहिये)। मोड़े की एक साड़ी एवं चुनड़ी अथवा दो साड़ी एवं ब्लाउज तथा गहना व सामान (इच्छानुसार ।)
घाघरा, ओढ़ना, पेटीकोट, ब्लाउज, अण्डर गार्मेन्ट, रुमाल, कोरा भाता (यह ढाई मीटर का सफेद कपड़ा होता है जिसे-- जब दुल्हन बनाते हैं तब पेटीकोट पर पहिनाते हैं, बाद में रंगाकर उसकी चुन्नी बना लेते हैं), हाथी दांत का चूड़ा, नथ, गहना (इच्छानुसार), पाजेब, बिछुड़ी, चप्पल।
अपने परिवार के इष्ट देवी-देवता के कपड़े, पितर हों तो उनके भी कपड़े। (पितर के बारे में घर में पूछ लेना चाहिये।) बनड़े के लिये साफा, शेरवानी, कुर्त्ता, पायजामा, गंजी, अन्डरवियर, रुमाल, मोजा, मोचड़ी (जूता), गहना (इच्छानुसार ।)
सूट, शर्ट, टाई, मोजा, रुमाल, बेल्ट आदि अथवा चोळा, पायजामा, गहना, घड़ी आदि (इच्छानुसार)। (बनड़ा/बनड़ी के भाई-बहिन के कपड़े, गहने इच्छानुसार देते हैं।) बेटी के ससुरालवाले लेते हों तो सास-ससुर व परिवारवालों को गिफ्ट देते हैं। कमीणों (घर में काम करनेवाले आदमियों (औरतों व पुरुषों) को कमीण कहते हैं।) के लिये कपड़े या लिफाफे ।
दो चौकी, दो गद्दी, आरता की थाली में (रोळी, मोळी, चावल, गुड़, दूब, जल की गड्डी), मिश्री, तिलक करने के लिए चांदी का एक नकद रुपया, नेतरा (बिलौना करने की रस्सी, चांदी की चेन, मोती की माळा एवं मोळी मिलाकर नेतरा बनाया जाता है।) चांदी की ग्लास में शर्बत जिसमें शगुन की मिश्री अथवा बताशा मिलाया जाता है। शर्बत की ग्लास को लाल कपड़े से ढ़ककर रखते हैं। भाई के सामने सवा कि. चावल व सवा कि. गुड़ की भेळी एक थाली में सजाकर ले जाते हैं। टीकने के समय वर्तमान रिवाज के अनुसार देनेवाली गिफ्ट एवं भाइयों के लिए माला एवं भाभियों के लिए गजरे। (होनेवाली उपस्थिति की संख्या को ध्यान में रखना व मंगाना चाहिये।)
बहिन अपने ससुराल में अपने परिवार की महिलाओं को साथ लेकर गीत गाती हुई दरवाजे पर जाती है। भाई-भाभी जब मायरा भरने आते हैं तब वे शकुन के लिये दरवाजे पर पर एक साड़ी रखते हैं। (इसे मोड़ा की साड़ी कहते हैं।) अन्दर आने के बाद भाई-भाभी दोनों को चौकी पर खड़ा करके चांदी के रुपये से बहिन तिलक करती है। भाई को माला पहिनाती है। भाभी को गजरा देती है। आजकल दोनों को गिफ्ट भी देती है। शर्बत पिलाती है। बहिन अपनी साड़ी के पल्लू के साथ नेतरा लेकर भाई को चार बार क्रोस (Cross) नापती है। गले मिलती है। उपस्थित सभी भाई-भाभी, भतीजे आदि सपत्नीक को तिलक करती है, माला पहिनाती है गजरा देती है एवं गिफ्ट देती है। सभी भाई मिलकर चुनड़ी ओढ़ाते हैं । (तापड़िया परिवार में निज के, काका / बाबा परिवार के सभी भाई मिलकर चुनड़ी ओढ़ाते हैं।) बहिन आरता करती है। भाई आरता की थाली में लिफाफा देता है। कोई एक भाई, बहिन की ऊंवारी करता है। बहिन सभी उपस्थित भाइयों की सम्मिलित ऊंवारी करती है। उसके बाद बहिन-बहनोई, भतीजे-भतीजी, जंवाई आदि सबको बहिन तिलक करती है एवं गिफ्ट देती है।
उसके बाद बड़-मायरदार परिवार के भाई/भाभी आदि को बहिन तिलक करती है एवं माला पहनाती है एवं गिफ्ट देती है। बहिन को मामा के लड़के (भाई) भी साड़ी ओढ़ाते हैं। बहिन उनका भी आरता करती है। आरता की थाली में वे भाई भी लिफाफा देते हैं। बहिन उन सभी भाइयों की ऊंवारी करती है। वे भाई भी ऊंवारी करते हैं । मोड़ा की साड़ी को उतारकर बाद में किसी को दे देते हैं। यदि किसी के परिवार में पितर हों तो चुनड़ी ओढ़ाने के पहले पितर हो तो ब्राह्मण को कपड़े दें एवं पितराणी हो तो ब्राह्मणी को कपड़े दें।
चुनड़ी ओढ़ाने के बाद भाई अपनी अन्य बहिनों, बेटियों, पोतियों, दोहितियों को लिफाफा देता है। जवाईयों व भाणजों को भी तिलक करके लिफाफा देते हैं। पश्चात् बनड़ा / बनड़ी को चौकी पर बैठाकर उनके लिये लाये हुये कपड़े व गहने परिवार के बड़े तिलक करके देते हैं। तत्पश्चात परिवार के बड़े, बनड़ा / बनड़ी की मां एवं पिता को अर्थात् अपनी बेटी एवं जंवाई को चौकी पर बैठाकर, तिलक कर, लाये हुये गहना / कपड़ा देते हैं। सगे लेते हों तो उन्हें तिलक करके पुरुष, पुरुषों को लिफाफा या सामान देता है एवं महिला, महिलाओं को प्रणाम करके लिफाफा या सामान देती है। सबकी नाश्ते की मनुहार की जाती है। दोपहर या शाम सुविधानुसार बीर- भोजन का जीमण होता है।
बीर-भोजन का अर्थ है कि बहिन अपने बीर (भाइयों) को भोजन हेतु आमन्त्रित करती है। मायरा के पश्चात् बीर-भोजन होना प्रासंगिक है, परन्तु जब मायरा दोपहर को हो तो बीर-भोजन सुबह अथवा संध्या को होता है। सभी भाइयों - भाभियों व भतीजे-भतीजी व अन्य आमन्त्रितों को व पिहर के पूरे परिवार को बहिन भोजन करवाती है एवं अपने हाथ से मनुहार करती है। विवाह के बाद मायरदारों को वापस जाते समय इच्छानुसार सीख दी जाती है व मिठाई भेजी जाती है।
बानवाले दिन शाम को ब्राह्मण बनोरी निकालते हैं। पुराने जमाने में तो जान पहिचान के ब्राह्मण के घर से बनोरी निकालते थे। अब घर के गेट के बाहर ही कुर्सी पर बनड़ा/बनड़ी को बिठाकर ब्राह्मण से बनड़ा/बनड़ी को गुड़ से मुंह जुठा देते हैं। नारियल व ग्यारह रुपये की ब्राह्मण से बनड़ा / बनड़ी की खोळ भरा देते हैं। चंदवा (चार जने ओढ़ने के चारों पल्लू पकड़कर) करके बनड़ा / बनड़ी को गीत गाते हुए घर में ले आते हैं। घर के दरवाजे पर भूवा/बहिन तिलक करती है। लूणराई करती है। घर में दीपक जलाकर सांझा (संध्या) गाते हैं एवं वारणा लेते हैं।
पुराने जमाने में बान बैठ जाने के पश्चात् प्रत्येक संध्या / रात को बनोरी लड़के/लड़की की निकाली जाती थी। इसी क्रम में एक बनोरी ब्राह्मण बनोरी होती थी। आखिरी दिन बड़ी बनोरी निकाली जाती थी, जिसमें गाजाबाजा, आतिषवाजी के साथ बग्घी पर बनड़ी को बैठाकर पूरे गांव में घुमाते थे। बनड़ी के साथ परिवार व आये हुये सम्बन्धी, जंवाई-भाई व गांव के मुख्य व्यक्ति भी साथ घूमते थे। बनड़े को घोड़ी पर बिठाते थे।
विवाह के एक दिन पहले, ब्राह्मण बनोरी एवं वारणा के पश्चात् रात्रि 10 बजे के बाद वधू का घट विवाह सम्पन्न किया जाता है। इसकी चर्चा व जानकारी गुप्त रखी जाती है। पूजा एकान्त में होती है जहां माता-पिता अथवा फेरे में बैठनेवाले दम्पत्ति, पण्डितजी, वधू एवं सहयोग हेतु एक आदमी एवं नौकर ही उपस्थित रहते हैं। पूजा, घर के एकान्त स्थान अथवा कमरे में अथवा किसी मन्दिर में कराते हैं। पूजास्थल पर परिवार अथवा बाहर का व्यक्ति नहीं जाता है।
पूजा की कुछ सामग्री पण्डितजी लाते हैं एवं बाकी बताते हैं।
वधू के लिये एक सामान्य साड़ी (लाल/ पीले रंग की), ब्लाउज, पेटीकोट, टीकी, नथ, चूड़ा- लाल लाख अथवा लाल कांच का, पाजेब, बिछुड़ी। वर के लिये एक सामान्य धोती, चोळा, चद्दर, टोपी, रुमाल, छोटे मुंह का मिट्टी का एक घड़ा ढ़क्कन सहित, बैठने के लिये चार आसन ।
पूजा स्थल पर ही वधू को नहलाकर उपरोक्त नये कपड़े पहिनाते हैं। टीकी, नथ, पाजेब, बिछुड़ी एवं चूड़ा भी पहिना देते हैं। माता-पिता अथवा फेरे दिलानेवाले दम्पत्ति एवं वधू, पूजा में बैठते हैं। पण्डितजी पूजा कराते हैं। घड़े (घट) को विष्णु भगवान का स्वरूप मानते हैं। घट के साथ वधू के सात फेरे कराये जाते हैं। पूजा सम्पूर्ण होने पर घट एवं पूजा की सामग्री एवं पूजा की शेष सामग्री को समुद्र, नदी अथवा तालाब में विसर्जन कर देते हैं। पूजा के समय वधू जो नये वस्त्र पहनी है उनको खोलकर पहलेवाले कपड़े वापस पहन लेती है। पूजा के समय पहने हुये कपड़े वहीं दैया अथवा किसी गरीब को दे देते हैं। पूजा में चढ़ाया हुआ द्रव्य, गहने आदि जो वधू ने धारण किये थे वे पण्डितजी लेते हैं। यदि पण्डितजी नहीं लें तो कपड़ों के साथ दया अथवा किसी गरीब को दे देते हैं। वहां गया हुआ सामान वापस घर में नहीं लाते हैं।
जिस लड़की के ग्रह बलवान हों, उसकी शान्ति व परिहार के लिये घट-विवाह का विधान है। (तापड़िया परिवार में वधू के दीर्घ सौभाग्य हेतु सभी कन्या का घट-विवाह कराया जाता है)।